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________________ (22) को सुख हो इस लिये, अपना प्रत्यवाय ( पाप ) नष्ट हो इस लिये और अपना होनहार जो प्रत्यवाय उसके नाश के लिये भी महा देवजी इस जगतको.पैदा करते हैं तो यह कथन भी शपथश्रद्धेय है, क्योंकि ईश्वर में तो नित्य ही सुख रहता है तो फिर महादेव क्यों सुख के लिये यन करेंगे, और विचारे भोले महादेव को प्रत्यवाय भी माननेमें नहीं आता है तो फिर वे अपना प्रत्यवायके नाश के लिये क्यों उद्यत होंगे // 7 // यदि शास्त्रीजी कहैं कि अपूर्व अनुकम्पा से महादेवजीने यह जगत बनाया है, यह कथन भी वृथा है, यदि महादेव करुणासे जगत बनाते तो यह कभी न होता कि एक दरिद्री, एक धनी, एक सुरूपी एक कुरूपी, एक विद्वान् , एक पागल, एक देव, और एक दानव होता, यदि शास्त्रीजी कहैं कि प्राणियोंके धर्म और अधर्म के बराबर उनको महादेवजी फल देते हैं, महाशय ! देखिये ऐसा मानने में द्वितीय श्लोक में दिखाई हुई बराबर ईश्वर की खतन्त्रता नष्ट हो जायगी और एक मामूली कुलीकी श्रेणिमें महादेवजी का नम्बर लग जायगा. जैसे कि ( सापेक्षोऽसमर्थः ) याने जो कोई भी कार्य में किसी का अपेक्षा रक्खे तो वह असमर्थ, पराधीन कहलाता है वैसे ही धर्म और अधर्म सापेक्ष कार्य करनेवाला महादेव कहां से स्वतन्त्र होगा ? // 8 // . अब शास्त्रीजी परेशान होकर अन्तिम पक्षको स्वीकारते हैं की महा
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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