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________________ (20) परन्तु महादेवजी तो जडरूप जो कर्मसमूह, उसके वश होकर कार्य करते हैं, तब भी स्वतन्त्र कहलाते हैं, यह स्वतन्त्रता दक्षिण देशकी है. मैं मी० गंगाधरजी से कहता हूँ की सखे ! उसका ही नाम स्वातन्व्य है कि जहां कोई की भी अपेक्षा न की जावे, और भी हमारे शास्त्रीजी ईश्वर को कर्मपरतन्त्र न मानकर केवल सकर्मक आत्मा ही यह सब सृष्टिका प्रवाहरूप से रचयिता है, ऐसा माने तो कोई भी दूषण देखनेमें नहीं आता है, फिर क्यों ईश्वर को बीच में अन्तर्गडु कि तरह शास्त्रीजी मानते हैं ? यदि शास्त्रीजी इस दलील को पेश करें, की कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा एक भी संपूर्ण नियमित कार्य नहीं कर सकता है, तो यह बात सविस्तर सयुक्तिक आगे खण्डित की जावेगी इसलिये पाठक महाशय सावधानता से देख लेवें, और भी जडसहकृत चेतन नियमित कार्य नहि करसकता है, यह बात कहना सर्व वर्तमान व्यवहार का अपलाप करना है // 3 // यदि शास्त्रीजी कहैं कि 'अपनेको धर्म हो' इस लिये शिशिर ऋतु में भी प्रातःकाल महादेवजी अपनी प्रिया पार्वती की शय्या को छोडकर कुम्भकार की तरह यह संसार की रचना में लगते हैं, तो यह बात भी ब्राह्मण के शृङ्ग की समान है. क्योंकि आप (न्यायदर्शन) श्रीमहादेवजी को कृतकृत्य मानते हैं, और वह ही कृतकृत्य कहा जा सकत है कि जो कभी कार्य करने में प्रवृत्त न होवे, परन्तु आपके गिरि
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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