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________________ 144 : : नरभवदिटुंतोवनयमाला पुण्यविनाना संसारी प्राणीओने फरी . मनुष्यजन्मनी प्राप्ति थवी ते विशेष दुर्लभ छे // 10 // केणवि कालवसेण य देवबलेण य कत्थवा कइया / पेच्छइ ससहबियं लहिज्ज नो माणुसं खु पुणो // 11 / / भावार्थ:-केटलेककाले कालबलथी के देवबलथी कोइपण स्थानमां चंद्रनुं दर्शन थइ शके तेवो संभव छे, परंतु मनुष्यजन्मनु मलq तो विशेष दुर्लभ छे // 11 // अत्रोपनययोजना यथा अहीया दृष्टान्त घटावे छे, जेमजह अइगहण वि वणं तह संसाराडवी मुणेयव्वा / जहद्दहो अइगुहिरो मणुअगई तत्थ णायव्वा / / 12 / / भावार्थः-अतिगहन (भयंकर) . वनना जेवी संसाररूप अटवी (वन) अने अतिगंभीर द्रहना जेवी मनुष्यगति जाणवी // 12 // जीवो तह संसारी वसइ सया कच्छवुव्व परिजुण्णो / जलयरभावं पत्ता तत्थाणेगे मणुअजीवा // 13 // भावार्थ:-तेमां (द्रहना जेवी मनुष्यगतिनी अंदर) कच्छप (काचबा)नी पेठे संसारीजीवो निरंतर वसे छे, तेवीज रीते त्यां बीजा जलचरप्राणीओनी पेठे
SR No.004393
Book TitleNarbhavdrushtantopnaymala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1996
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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