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________________ से रहित हैं, जो शुक्ल लेश्या में अवगाढ़-प्रविष्ट हैं उन्हें बोधि सुलभ है। जो जिनवचन में अनुरक्त हैं जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं वे निर्मल और रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीत संसारी परमित संसार वाले हैं। स्थानांग सूत्र में बलन मरण और वशांत मरण, निदान मरण और तद्भव मरण, गिरिपतन और तरुपतनमरण, जलप्रवेश मरण और अग्निप्रवेश मरण, विषभक्षण मरण और शास्त्रावपातन मरण को प्रशंसित और अनुमोदित नहीं किया गया है। प्रायोपगमन मरण और भक्तप्रत्याख्यान मरण को निर्ग्रन्थों के लिए अनुमोदित किया गया है। प्रायोपगमन मरण दो प्रकार का है- निर्हारिम और अनिर्हारिम / प्रायोपगमन मरण नियमतः अप्रतिकर्म होता है, जबकि भक्तप्रत्याख्यान मरण सप्रतिकर्म होता है। समवायांग में भी मरण के 17 प्रकारों का वर्णन किया गया है। समवायांग और भगवती आराधना में कहीं-कहीं उनके नाम और क्रम में अन्तर दिखाई देता है। जैसे समवायांग में छद्मस्थ मरण का उल्लेख है, जबकि भगवती आराधना में ओसन्नमरण का उल्लेख है। . चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में 175 गाथाएँ हैं। इस प्रकीर्णक का अन्तिम लक्ष्य तो समाधिमरण का निरूपण ही है; किन्तु उसकी पूर्व भूमिका के रूप में विनय गुण, आचार्य गुण, विनय निग्रह गुण, ज्ञानगुण और चरण गुण द्वार नामक प्रथम पाँच द्वारों में समाधिमरण की पूर्व भूमिका के रूप में सम्बन्धित विषयों का विवरण दिया गया है। और अन्त में छठा समाधिमरण द्वार है। मरणगुणद्वार नामक सप्तम द्वार में 58 गाथाएँ हैं जिसमें अकृतयोग और कृतयोग के माध्यम से यह बताया गया है कि जो व्यक्ति विषय वासनाओं के वशीभूत होकर जीता है वह अकृत योग है और जो इसके विपरीत वासनाओं और कषायों का नियन्त्रण कर जीवन जीता है वह कृत . योगी है और उसी का मरण सार्थक है- समाधिमरण है। आतुर प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान में भी समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। आतुर प्रत्याख्यान के तृतीय प्रकीर्णक जिसमें 71 गाथाएँ हैं, में मुख्यरूप से बाल पण्डितमरण और पण्डितमरण की चर्चा है। प्रथम चार गाथाओं में देशव्रती श्रावक के लिए बाल पण्डित. मरण और मुनि के लिये पण्डित मरण का विधान है। अन्त में आलोचनादायक और आलोचना ग्राहक के गुणों की चर्चा करते हुए बालमरण, बाल पण्डित मरणं, पण्डितमरण, असमाधिमरण की भी चर्चा है। महाप्रत्याख्यान में 142 गाथाएँ हैं जिसमें बाह्य और आभ्यन्तर का परित्याग, सर्व जीवों से क्षमायाचना, आत्मालोचन, ममत्व का छेदन, आत्मस्वरूप का ध्यान, मूलगुणों एवं उत्तरगुणों की आराधना, एकत्व भावना, संयोग सम्बन्धों का परित्याग, पाँच महाव्रतों, समिति, गुप्ति का स्वरूप और तप का महत्त्व बताते हुए ज्ञान की प्रधानता प्रकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 1097
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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