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________________ इंगिनीमरण, प्रायोपगमन। इसमें समाधिमरण के लिए दो तत्त्व आवश्यक हैंकषायों का कृशीकरण और दूसरा शरीर का कृशीकरण। इनमें मुख्य कषायों का कृशीकरण है। आचारांग के अनुसार संघस्थ मुनि बीमारी अथवा वृद्धावस्थाजन्य शरीर दुर्बलता की स्थिति में आहारादि से एक-दूसरे का उपकार अर्थात् सेवा कर सकते हैं किन्तु इस सम्बन्ध में चार विकल्पों का उल्लेख हुआ है- 1. मैं साधर्मिक भिक्षुओं के लिए आहार आदि लाऊँगा और उनके द्वारा लाया हुआ आहार स्वीकार भी करूँगा 2. मैं दूसरों के लिए आहार आदि नहीं लाऊँगा किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूँगा 3. मैं दूसरों के लिए आहारादि लाऊँगा किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार नहीं करूँगा 4. मैं न तो दूसरों के लिए आहार लाऊँगा और न ही उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूँगा। आचारांगकार के अनुसार जब शरीर संयम-साधना के लिए असमर्थ हो रहा हो तो वह भिक्षु आहार का संक्षेप करे, कषायों को कृश करे और समाधिमरण के लिए प्रयत्नशील होकर शरीर का उत्सर्ग करे। उत्तराध्ययन के पाँचवें अध्याय में मृत्यु के दो रूपों की चर्चा है- अकाम मरण और सकाम मरण / अकाम मरण बारबार होता है जबकि सकाम मरण एक बार होता है। आत्म पुरुषार्थ से रहित निरुद्देश्य और निष्प्रयोजनपूर्वक मरण अकाम मरण है जिसमें व्यक्ति संसार में आसक्त हो, अनाचार का सेवन करता है, कामभोगों के पीछे भागता है, मृत्यु के जबकि सकाम मरण पुरुषार्थ या साधना से मृत्यु के प्रयोजनरूप मरण है जो पण्डितों को प्राप्त होता है। संयमी जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं का मरण अति प्रसन्न अर्थात् निराकुल एवं आघात रहित होता है। जो भिक्षु हिंसा आदि से निवृत्त होकर संयम आदि का अभ्यास करता है, उन्हें ही ऐसा सकाम मरण प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन में स्पष्ट निर्देश है कि मेधावी साधक बालमरण व पण्डित मरण की तुलना करके सकाम मरण को स्वीकार करे, मरण काल में क्षमा और दशधर्म से युक्त हो तथा आत्मभाव से मरण करे। उत्तराध्ययन के इस पंचम अध्याय में उन्हीं तीनों प्रकार के समाधिमरणों का उल्लेख है जिनकी चर्चा आचारांग में है। इसके 36वें अध्याय में उल्लेख है कि अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि अनुक्रम से आत्मा की सल्लेखनाविकारों से क्षीणता करे। उत्कृष्ट सल्लेखना बारह वर्ष की होती है, मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास की। कांदपी, अभियोगी, किल्विषिकी मोही और आसुरी भावनाएं दुर्गति देने वाली हैं जो मृत्यु के समय में संयम की विराधना करती हैं, जो मरते समय मिथ्यादर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से युक्त हैं, हिंसक हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है। जो सम्यग्दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान 9600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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