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________________ यदि जीवन को सँवारना है तो मृत्यु को पहचानने का अभ्यास किया जाना चाहिए। वह कोई दुर्घटना नहीं है, वह तो जीवन की पूर्णता की सूचक एक अवश्यम्भावी घटना है। भय, आतंक और रहस्य के पर्यों को चीरकर, जिस दिन हम मरण का निरावरण रूप निरख लेंगे, उसी दिन मृत्यु हमारे लिए सम्मोहक, उपकारी और स्वागत करने योग्य लगने लगेगी। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी उसके बारे में हम जितना सोचते-विचारते और जानते हैं उसका शतांश भी उस मृत्यु के बारे में नहीं जानना चाहते जो सुनिश्चित है और अटल है हम मरण और पुनर्जन्म के बारे में जितना चिन्तन करेंगे, हमारा वर्तमान जीवन उतना ही सुसंस्कृत, सन्तुलित और सफल बनता जायेगा। मृत्यु छाया की तरह सदा हमारे साथ ही तो है। दोनों की जोड़ी है। जीवन के बिना मृत्यु का और मृत्यु के बिना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं है। जैनाचार्यों ने आत्मा और देह की भिन्नता के चिन्तन को समाधि-साधना के लिए उपयोगी बताया है। पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश तथा समाधि-तन्त्र ग्रन्थों में इस समाधि-विज्ञान की बहुत सार्थक और सटीक व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। उन्होंने लिखा- वस्त्र के नष्ट हो जाने पर जिस प्रकार कोई स्वयं को नष्ट नहीं मानता, वैसे ही विवेकी जन अपनी देह के नाश होने पर आत्मा के नाश का भय नहीं करते। _ “नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा। नष्टे स्वदेहेऽपि आत्मानं न नष्टं मन्यते बुधः / / " –समाधितन्त्र, 65 आचार्य ने आगे इस सन्दर्भ में एक और उदाहरण दिया है “स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि न नाशोऽस्ति यथात्मनः। तथा जागरदृष्टेऽपि विपर्यासाविशेषतः।।" -समाधितन्त्र, 101 देह और आत्मा की भिन्नता को पुष्ट करने के लिए आचार्य ने बताया- शरीर, घर-मकान, स्त्री-पुत्र-परिवार तथा मित्र और शत्रु, ये सभी हम से सर्वथा पृथक, हम से सर्वथा भिन्न स्वभाव वाले हैं। वे मूढ़ हैं जो स्व-पर-भेदविज्ञान के अभाव के कारण इन्हें अपना मानते हैं “वपुहं धनं दाराः पुत्राः मित्राणि शत्रवः / सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते।।” –इष्टोपदेश, 8 आत्मा के प्रति एकत्व और देहादिक के प्रति अन्यत्व का विज्ञान निर्धान्त रूप से दृढ़तापूर्वक यदि श्रद्धा में बस जाये तो यह रहस्य समझने में कठिनाई नहीं होगी कि राग-द्वेष, सुख-दुःख और जन्म-मरण की जो दाह अनादि काल से मुझे जला रही है उसका मूल कारण यह शरीर-संयोग ही है। आत्मकल्याण के अभिलाषी साधक को देह-व्यामोह त्याग कर अनासक्ति की छाँह में शीतलता का अनुभव करना चाहिए। 66 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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