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________________ करानेवाले इन निर्यापक मुनियों का बड़ा सुन्दर और विशद वर्णन करते हुए लिखा है :- वे मुनि (निर्यापक) धर्मप्रिय, दृढश्रद्धानी, पापभीरु, परीषह-जेता, देश-कालज्ञाता, योग्यायोग्य-विचारक, न्यायमार्ग-मर्मज्ञ, अनुभवी, स्वपरतत्त्व विवेकी, विश्वासी और परम-उपकारी होते हैं। ये निर्यापक मुनि क्षपक की समाधि में पूर्ण प्रयत्न से सहायता करते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में काल की विषमता होने से जैसा अवसर हो और जितनी विधि बन जाये तथा जितने गुणों के धारक निर्यापक मिल जायें उतने गुणों वाले निर्यापकों से भी समाधि करायें, अतिश्रेष्ठ है; पर एक निर्यापक नहीं होना चाहिए, कम-से-कम दो होना चाहिए, क्योंकि अकेला एक निर्यापक क्षपक की 24 घण्टे सेवा करने पर थक जाएगा और क्षपक की समाधि अच्छी तरह नहीं करा सकेगा। इस कथन से दो बातें प्रकाश में आती हैं। एक तो यह कि समाधिमरण कराने के लिए दो से कम निर्यापक नहीं होने चाहिए। सम्भव है कि क्षपक की समाधि अधिक दिन तक चले और उस दशा में यदि निर्यापक एक हो तो उसे विश्राम नहीं मिल सकता, अतः कम-से-कम दो निर्यापक तो होना ही चाहिए। दूसरी बात यह कि प्राचीन काल में मुनियों की इतनी बहुलता थी कि एक-एक मुनि की समाधि में बहुत मुनि निर्यापक होते थे और क्षपक की समाधि को वे निर्विघ्न सम्पन्न कराते थे। ये निर्यापक क्षपक को जो कल्याणकारी उपदेश देते हैं तथा उसे सल्लेखना में सुस्थिर रखते हैं, उसका पण्डित आशाधर जी ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। * लोक में ऐसा कोई पुद्गल नहीं, जिसका तुमने एक से अधिक बार भोग न किया हो, फिर भी वह तुम्हारा कोई हित नहीं कर सका। परवस्तु क्या कभी आत्मा का हित कर सकती है? आत्मा का हित तो उसी के ज्ञान, संयम और श्रद्धादि गुण ही कर सकते हैं। अतः बाह्य वस्तुओं से मोह को त्यागो, विवेक तथा संयम का आश्रय लो। और सदैव यह विचारो कि मैं अन्य हूँ और पुद्गल अन्य है। मैं चेतन है, ज्ञाता-द्रष्टा हूँ और पुदगल अचेतन है, ज्ञान-दर्शन-रहित है। मैं आनन्दघन हूँ और पुद्गल ऐसा नहीं है। जिस सल्लेखना को तुमने अब तक धारण नहीं किया था उसे धारण करने का सुअवसर तुम्हें आज प्राप्त हुआ है। उस आत्महितकारी सल्लेखना में कोई दोष न आने दो। तुम परीषहों-क्षुधादि के कष्टों से मत घबराओ। वे तुम्हारे आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। उन्हें तुम सहनशीलता एवं धीरता से सहन करो और उनके द्वारा कर्मों की असंख्यगुणी निर्जरा करो। अत्यन्त दुःखदायी मिथ्यात्व का वमन करो, सुखदायी सम्यक्त्व का आराधन करो, पंचपरमेष्ठी का स्मरण करो, उनके गुणों में सतत अनुराग रखो और अपने शुद्ध ज्ञानोपयोग में लीन रहो, अपने महाव्रतों की रक्षा करो, कषायों को जीतो, इन्द्रियों 2800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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