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________________ हो, तो उसे कौन बुद्धिमान् छोड़ना चाहेगा? फलतः सल्लेखना- धारक उन पाँच दोषों से भी अपने को बचाता है, जिनसे उसके सल्लेखना-व्रत में दूषण लगने की सम्भावना रहती है। वे पाँच दोष निम्न प्रकार बतलाये गये हैं जिन्हें अतिचार कहा गया है : 1. सल्लेखना ले लेने के बाद जीवित रहने की आकांक्षा करना 2. कष्ट न सह सकने के कारण शीघ्र मरने की इच्छा करना 3. भयभीत होना 4. स्नेहियों का स्मरण करना 5. अगली पर्याय में सुखों की चाह करना। सल्लेखना का फल सल्लेखना-धारक धर्म का पूर्ण अनुभव और लाभ लेने के कारण नियम से निःश्रेयस अथवा अभ्युदय प्राप्त करता है। समन्तभद्रस्वामी ने सल्लेखना का फल बतलाते हुए लिखा है :- उत्तम सल्लेखना करनेवाला धर्मरूपी अमृत का पान करने के कारण समस्त दुःखों से रहित होकर या तो वह निःश्रेयस को प्राप्त करता है और या अभ्युदय को पाता है, जहाँ उसे अपरिमित सुखों की प्राप्ति होती है। पण्डित आशाधर जी भी कहते हैं कि.जिस महापुरुष ने संसार-परम्परा के नाशक समाधिमरण को धारण किया है उसने धर्मरूपी महान निधि को परभव में जाने के लिए अपने साथ ले लिया है, जिससे वह उसी तरह सुखी रहे, जिस प्रकार एक ग्राम से दूसरे ग्राम को जानेवाला व्यक्ति पास में पर्याप्त पाथेय होने पर निराकुल रहता है। इस जीव ने अनन्त बार मरण किया, किन्तु समाधि-सहित पुण्य-मरण कभी नहीं किया, जो सौभाग्य से या पुण्योदय से अब प्राप्त हुआ है। सर्वज्ञदेव ने इस समाधि-सहित पुण्य-मरण की बड़ी प्रशंसा की है, क्योंकि समाधिपूर्वक मरण करनेवाला महान् आत्मा निश्चय से संसाररूपी पिंजरे को तोड़ देता है - उसे फिर संसार के बन्धन में नहीं रहना पड़ता है। सल्लेखना में सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य - आराधक जब सल्लेखना ले लेता है, तो वह उसमें बड़े आदर, प्रेम और श्रद्धा के साथ संलग्न रहता है तथा उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानी रखता हुआ आत्म-साधना में गतिशील रहता है। उसके इस पुण्य-कार्य में, जिसे एक महान् यज्ञ कहा गया है, पूर्ण सफल बनाने और उसे अपने पवित्र पथ से विचलित न होने देने के लिए निर्यापकाचार्य (समाधिमरण कराने वाले अनुभवी मुनि) उसकी सल्लेखना में सम्पूर्ण शक्ति एवं आदर के साथ उसे सहायता पहुँचाते हैं। और समाधिमरण में उसे सुस्थिर रखते हैं। वे सदैव उसे तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेश करते तथा शरीर और संसार की असारता एवं क्षणभंगुरता दिखलाते हैं, जिससे वह उनमें मोहित न हो, जिन्हें वह हेय समझकर छोड़ चुका या छोड़ने का संकल्प कर चुका है। उनकी पुनः चाह न करे। आचार्य शिवार्य ने भगवती-आराधना (गाथा 650-376) में समाधिमरण प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 27
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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