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________________ क्षपक समाधि “पार्श्वप्रभु के चरणयुग, पूर्णां मन वच काय / हो समाधि, बल यह मिले, जन्म-मरण नश जाय।।" जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित छह द्रव्यों में जीव द्रव्य सर्वोपरि है, क्योंकि वह चैतन्य गुण से उपलक्षित है। जीव अनन्तानन्त हैं। उनमें से अनन्त जीव तो अपने समीचीन पुरुषार्थ के द्वारा शुद्धात्मानुभूति के अवलम्बन से अपने स्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं, किन्तु टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावी होते हुए भी अनन्तानन्त जीव अपने स्वभाव की श्रद्धा के अभाव में संसार रूपी चक्की के जन्म-मरण रूपी दो पाटों के बीच अनादि काल से पिसते चले आ रहे हैं। रात और दिन के सदृश जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म का अनादि प्रवाह सम्बन्ध प्रत्येक संसारी प्राणी के साथ है। _. 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युधुवं जन्म मृतस्य च' इस नीत्यनुसार जिसका जन्म है उसकी मृत्यु अवश्य है और जिसकी मृत्यु है उसका जन्म अवश्यम्भावी है। आयुक्षय के कारण प्राप्त होने पर शरीर का अथवा दस प्राणों के विनाश का नाम मृत्यु है और आयुकर्म के उदयवशात् मनुष्य आदि स्थूल व्यंजन पर्यायों में दश प्राणों के साथ जीव का आविर्भाव होना जन्म है। जन्म लेने के बाद देव तथा तिर्यंच आदि व्यंजन पर्याय में जीव का अवस्थान अधिक से अधिक 33 सागर और कम से कम एक श्वास के अठारहवें भाग अर्थात् क्षुद्रभवप्रमाण है। मध्यम अवस्थान के असंख्यात भेद हैं। इस स्थिति में त्रैराशिक विधि के अनुसार भूतकाल में होने वाले अपने मरणों की संख्या निकालें तो अनुमान कीजिए कि वह कितनी होगी? अनन्तानन्त से कम तो नहीं होगी। अनन्तानन्त बार यह जीव जन्म और मरण कर चुका है, फिर भी इसे इन क्रियाओं में अनादर उत्पन्न नहीं हुआ, यह महान् आश्चर्य है। ‘अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत् प्रीतिरिति’ नीत्यनुसार भी जन्म-मरण की इन अतिपरिचित क्रियाओं में अवज्ञा होनी चाहिए थी, किन्तु नहीं हुई, इसी कारण यह संसार भी नहीं छूटा। ‘मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम्' अर्थात् मरना देहधारियों का स्वभाव है और ‘स्वभावोऽतर्कगोचरः' स्वभाव में तर्क नहीं चलता, फिर मरण से भय क्यों? क्या हमारे डरने पर यह मरण हमें डरपोक समझकर छोड़ देगा? क्या मरण से कोई रक्षा कर सकेगा? नहीं। फिर मरण-समय कायरता और कातरता क्यों? प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 169
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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