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________________ उखड़ जाने से उसके मूल में रखा हुआ धन का घट भी उसे प्राप्त हो गया। यह कार्य जिसप्रकार असंख्य जीवों में से किसी एक के ही संभव है, सबके लिए तो असंभव ही है, ऐसे ही बिना पूर्व में रत्नत्रय की साधना किए बिना सल्लेखना की प्राप्ति होना अशक्य है। अमितगति आचार्यकृत मरणकण्डिका में उल्लिखित है “यद्यभावितयोगोऽपि, कोऽप्याराधयते मृतिम् / तत्प्रमाणं न सर्वत्र, स्थाणुमूलनिधानवत् / / " इस देह का वियोग समताभावपूर्वक हो- इसी मंगल भावना सहित। * तू दुनिया से जाएगा अपनी ढपली राग बजाता, तू दुनिया से जाएगा। करना हो सो कर ले बंदे, फिर पीछे पछताएगा।। तूने ऊँचे महलों की जो, गहरी नींव खुदायी हैं। चलने को पाँवों के नीचे, ये चाँदी बिछवायीं है। .. ईंट-ईंट दीवारें माना, सोने से सजवायीं हैं। साथ तुझे ले जाने को न, मिले एक भी पाई है। साम्राज्य का स्वामी कल, मरघट में अलख जगाएगा। अपनी ढपली राग बजाता, तू दुनिया से जाएगा।। तू चूम रहा जो कोमल कर, कल तेरी चिता बनाएँगे। कन्धे से कन्धे बदल-बदल कर, मरघट में पहुँचाएँगे। तू भूल रहा तेरे तन में ये, दारुण आग लगाएँगे। जब साथ कोई न जा पाया, फिर साथ ये कैसे जाएँगे। पाप-पुण्य ले यमद्वारे का, घंटा स्वयं बजाएगा। अपनी ढपली राग बजाता, तू दुनिया से जाएगा।। कह रही अयोध्या की सरयू, मेरा लक्ष्मण और राम कहाँ। वृन्दावन की गलियाँ बोलीं, वह मुरलीघर घनश्याम कहाँ। हस्तिनापुर के खंडहर बोले, वे पांडव-से बलधाम कहाँ। ले गयी सभी को बीन बीन, ये लेती है विश्राम कहाँ। आज सजा ले तन कल तेरी अरथी कौन सजाएगा? अपनी ढपली राग बजाता, तू दुनिया से जाएगा।। . 16800 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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