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________________ का वास्तविक फल नहीं मिल पाता। इसलिए प्रत्येक साधक को सल्लेखना अवश्य करनी चाहिए। मुनि और श्रावक दोनों के लिए सल्लेखना अनिवार्य है। यथाशक्ति इसके लिए प्रयास भी करना चाहिए। जिसप्रकार युद्ध का अभ्यासी पुरुष रणांगण में सफलता प्राप्त करता है, उसी प्रकार पूर्व में किए गए अभ्यास के बल पर ही सल्लेखना प्राप्त होती है। अतः जब तक भय का अभाव नहीं होता, तब तक हमें प्रतिसमय सफलतापूर्वक मरण हो, इसप्रकार का भाव और पुरुषार्थ करना चाहिए। वस्तुतः सल्लेखना के बिना साधना अधूरी है। जिस प्रकार मन्दिर के निर्माण के बाद जब तक उस पर कलशारोहण नहीं होता, तब तक वह शोभास्पद नहीं लगता, उसी प्रकार जीवन भर की साधना, सल्लेखना के बिना अधूरी रह जाती है। सल्लेखना साधना के मण्डप पर किया जाने वाला कलशारोहण है। मरण के भेद __ मरणं द्वित्रिचतुःपञ्चविधं वा मरण दो, तीन, चार अथवा पाँच प्रकार का है। मरण के दो प्रकार :- नित्यमरण और तद्भव मरण के भेद से मरण दो प्रकार का है। प्रतिसमय आयु आदि प्राणों का क्षीण होते रहना नित्यमरण है। इसे अवीचि मरण भी कहते हैं। आयु के पूर्ण होने पर होने वाला मरण तद्भव मरण कहलाता है। मरण के तीन प्रकार :- भक्त-प्रत्याख्यान-मरण, इंगिनी-मरण और प्रायोगमनमरण, मरण के तीन भेद हैं। स्व-पर की वैयावृत्तिपूर्वक होने वाली सल्लेखना अथवा समाधिमरण को भक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। इसमें आहार आदि का क्रमशः त्याग करते हुए शरीर और कषायों को कृश किया जाता है। जिस सल्लेखना में पर की वैयावृत्ति स्वीकार नहीं होती उसकी इंगिनीमरण संज्ञा है। इस विधि से सल्लेखना धारण करने वाले साधक दूसरों की कोई भी सेवा स्वीकार नहीं करते। अपनी और पर के उपकार की अपेक्षा से रहित सल्लेखना को प्रायोपगमन मरण कहते हैं। इस विधि से समाधिमरण करने वाले साधक दूसरों की सेवा तो स्वीकारते ही नहीं, स्वयं भी किसी प्रकार का उपचार (प्रतीकार) नहीं करते। वे सल्लेखना धारण करते समय जिन स्थिति या मुद्रा में रहते हैं, अन्त तक वैसे ही रहते हैं, अपने हाथ-पैर तक नहीं हिलाते। वे सभी प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को समतापूर्वक सहन करते हैं। उत्तम संहननधारी मुनिराज ही इस विधि से सल्लेखना धारण करते हैं। ___ मरण के चार प्रकार :- 1. सम्यक्त्वमरण 2. समाधिमरण 3. पण्डितमरण 4. वीरमरण सम्यक्त्व के छूटे बिना होने वाला मरण सम्यक्त्व मरण हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के साथ होने वाले मरण को समाधिमरण कहते हैं। भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी अथवा प्रायोपगमन विधि से होने वाला मरण पण्डितमरण कहलाता है। धैर्य और उत्साह के साथ भेदविज्ञान पूर्वक होने वाले मरण की वीर मरण संज्ञा है। 156 00 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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