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________________ सल्लेखना एवं भारतीय दण्ड-विधान 2) अनूपचन्द्र जैन एडवोकेट सल्लेखना का अर्थ सल्लेखना (सत्+लेखना) अर्थात् काय और कषायों को अच्छी तरह से कृश करना सल्लेखना है। इसे ही समाधिमरण भी कहते हैं। मृत्यु के सन्निकट होने पर सभी प्रकार के विषाद को छोड़कर समतापूर्वक देहत्याग करना ही समाधिमरण या सल्लेखना है। जैन साधक मानव-शरीर को अपनी साधना का साधन मानते हुए, जीवन पर्यन्त उसका अपेक्षित रक्षण करता है, किन्तु अत्यन्त बुढ़ापा, इन्द्रियों की शिथिलता, अत्यधिक दुर्बलता अथवा मरण के अन्य कोई कारण उपस्थित होने पर जब शरीर उसके संयम में साधक न होकर बाधक दिखने लगता है, तब उसे अपना शरीर अपने लिए ही भारभूत-सा प्रतीत होने लगता है। ऐसी स्थिति में वह सोचता है कि यह शरीर तो मैं कई बार प्राप्त कर चुका हूँ, इसके विनष्ट होने पर भी यह पुनः मिल सकता है। शरीर के छूट जाने पर मेरा कुछ भी नष्ट नहीं होगा, किन्तु जो व्रत, संयम और धर्म मैंने धारण किये हैं, ये मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं। बड़ी दुर्लभता से इन्हें मैंने प्राप्त किया है। इनकी मुझे सुरक्षा करनी चाहिए। इन पर किसी प्रकार की आँच न आये, ऐसे प्रयास मुझे करने चाहिए, ताकि मुझे बार-बार शरीर धारण न करना पड़े और मैं अपने अभीष्ट सुख को प्राप्त कर सकूँ। यह सोचकर वह बिना किसी विषाद के प्रसन्नतापूर्वक आत्मचिन्तन के साथ आहार आदि का क्रमशः परित्याग कर देहोत्सर्ग करने को उत्सुक. होता है, इसी का नाम सल्लेखना है। सल्लेखना का महत्त्व सल्लेखना को साधना की अन्तिम क्रिया कहा गया है। अन्तिम क्रिया यानि * मृत्यु के समय की क्रिया, इसे सुधारना अर्थात् काय और कषाय को कृश करके संन्यास धारण करना -यही जीवन भर के तप का फल है। जिस प्रकार वर्ष भर विद्यालय में जाकर अध्ययन करने वाला विद्यार्थी यदि परीक्षा में नहीं बैठता तो उसकी वर्ष भर की पढ़ाई निरर्थक हो जाती है, उसी प्रकार जीवन भर साधना करते रहने के उपरान्त भी यदि सल्लेखनापूर्वक मरण नहीं हो पाता है तो साधना प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 . 00 155
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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