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________________ में उल्लेख है कि कलवप्पुशिखर (चन्द्रगिरि} पर महामुनि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के चरणचिह्न हैं। ये शिलालेख शक सं. 822 के हैं। ___ इस सम्बन्धं में सबसे प्राचीन प्रमाण चन्द्रगिरि पर पार्श्वनाथ वसदि के पास का शिलालेख (नं. 1} है। यह लेख श्रवणबेलगोल के समस्त लेखों में प्राचीनतम सिद्ध होता है। इस लेख में कथन है कि महावीर स्वामी के पश्चात् परमर्षि गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृतिकार्य, जय, सिद्धार्थ, धृतिषेण, बुद्धिलादि गुरुपरम्परा में होने वाले भद्रबाहु स्वामी के त्रैकाल्यदर्शी निमित्तज्ञान द्वारा उज्जयिनी में यह कथन किए जाने पर कि वहाँ द्वादश वर्ष का वैषम्य दुर्भिक्ष} पड़ने वाला है, सारे संघ ने उत्तरापथ से दक्षिणा पथ को प्रस्थान किया, और क्रम से वह एक बहुत समृद्धियुक्त जनपद में पहुँचा। यहाँ आचार्य प्रभाचन्द्र ने व्याघ्रादि व दरी-गुफादि-संकुल सुन्दर कटवप्र नामक शिखर पर अपनी आयु अल्प ही शेष जान समाधितप करने की आज्ञा लेकर समस्त संघ को आगे भेजकर एक शिष्य को साथ रखकर देह की समाधिआराधना की। उपर्युक्त प्रभाचन्द्र को ही विद्वानों ने चन्द्रगुप्त माना है। श्रवणबेलगोल नगर के शिलालेख में सल्लेखना का वर्णन __श्रवणबेलगोल मठ के उत्तर की गोशाला में शक सं. 1041} उल्लेख है कि दिवाकरनन्दि के दो शिष्य मलधारिदेव और शुभचन्द्रदेव सिद्धान्तमुनीन्द्र थे। श्रीमती गन्ती ने उनसे दीक्षा लेकर समाधि-मरण किया। जिननाथपर के शिलालेख में सल्लेखना वर्णन श्रवणबेलगोल के पास जिननाथपुर में अरेगल बसदि के पूर्व की ओर लगभग शक सं. 1057} के शिलालेख में होय्सलवंशी नरेश विष्णुवर्द्धन और उनके दण्डनायक प्रसिद्ध गंगराज के वंशों का परिचय है। गंगराज के ज्येष्ठ भ्राता वम्मदेव के पुत्र एच दण्डनायक ने कोपड़, बेल्गुल आदि स्थानों में अनेक जिनमन्दिर निर्माण कराये और अन्त में संन्यासविधि से प्राणोत्सर्ग किया। गंगराज के पुत्र वोप्पदेव दण्डनायक ने अपने भ्राता एचिराज की निषद्या निर्माण कराई तथा उनकी निर्माण कराई हुई . बस्तियों के लिए गंगसमुद्र की कुछ भूमि का दान शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य माधवचन्द्र देव को किया। दक्षिण भारत के अन्य शिलालेखों में सल्लेखना का वर्णन बन्दलिके बसदि शक 840=918 ई.) के प्रवेश द्वार के पाषाण पर एक शिलालेख है, जिसका सारांश यह कि जब प्रजापति संवत्सर शक वर्ष 834 में महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक कन्नरदेव का राज्य प्रवर्धमान था-. . जिस समय कालिक देवय्सर-अन्वय के महासामन्त कलिविदुरस, बनवासि प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 00 135
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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