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________________ किया। मण्डलाचार्य प्रभाचन्द्र के शिष्य सिरियब्बे और नागियक्क ने सिंगिमय की स्मृति में शक सं. 1041 कार्तिक सुदि 12 सोमवार को यह निषद्या निर्माण कराई। ___ शिलालेख नं. 72 में कहा गया है कि कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के चारुकीर्ति पण्डितदेव के शिष्य अजितकीर्तिदेव के शिष्य शान्तकीर्तिदेव के शिष्य अजितकीर्तिदेव ने एक मास के उपवास के पश्चात् शक सं. 1731 भाद्रपद बदि 4 बुधवार को स्वर्गगति प्राप्त की। शिलालेख सं. 159 में कालन्तूर के किसी मुनि के कटवा पर एक सौ आठ वर्ष तक तप के पश्चात् समाधिमरण की सूचना है। शिलालेख सं. 190 {शक सं. 622} में किसी के समाधिमरण की सूचना है। शिलालेख सं. 193 {शक सं. 622) के अनुसार महादेव मुनिपुंगव ने मृत्युकाल निकट आया जानकर पर्वत पर तपश्चरण किया और स्वर्गगति प्राप्त की। शिलालेख सं. 194 {शक सं. 622) के अनुसार इन्द्रनन्दि आचार्य ने मोह-विषयादि जीतकर कटवप्र पर्वत पर समाधिमरण किया। ___ शिलालेख सं. 207 के अनुसार नविलूर संघ, आजिगण की साध्वी गन्ति ने पर्वत पर संन्यास धारण कर स्वर्गगति प्राप्त की। शिलालेख सं. 208 में पेत्वणि वंश के किसी व्यक्ति के समाधिमरण का उल्लेख है। . शिलालेख सं. 211 के अनुसार नविलूर संघ के किसी आचार्य ने संन्यास धारण कर प्राणोत्सर्ग किया। शिलालेख सं. 214 के अनुसार इसी संघ के माविअब्बे ने समाधिमरण किया। ___कहा जाता है कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने निमित्त ज्ञान से जाना कि उत्तर भारत में बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। ऐसी विपत्ति के समय में वहाँ मुनिवृत्ति का पालन होना कठिन जान उन्होंने अपने समस्त शिष्यों सहित दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। भारत सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी इस दुर्भिक्ष का समाचार पाकर संसार से विरक्त हो राज्यपाट छोड़ भद्रबाहुं स्वामी से दीक्षा ली और उन्हीं के साथ गमन किया। जब यह मुनि संघ श्रवणबेलगोल पहुँचा, तब भद्रबाहु स्वामी ने अपनी आयु थोड़ी शेष जान संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं शिष्य चन्द्रगुप्त सहित छोटी पहाड़ी पर रहे। चन्द्रगुप्त मुनि ने अन्त समय तक उनकी खूब सेवा की और उनका शरीरान्त हो जाने पर उनके चरणचिह्न की पूजा में अपना शेष जीवन व्यतीत कर अन्त में सल्लेखना विधि से शरीर त्याग किया। चन्द्रगुप्त के श्रवणबेलगोला की छोटी पहाड़ी पर रहने के कारण इसका नाम चन्द्रगिरि पड़ा। इस पहाड़ी पर विद्यमान भद्रबाहु गुफा में चन्द्रगुप्त के भी चरण चिह्न है। सेरिंगपट्टम ए.क. 3} के 147 और 148 नं. के दो शिलालेखों 134 10 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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