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________________ - आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा सल्लेखना के माहात्म्य को प्रकट किया है। अनेक प्रकार के रत्न आदि का व्यापार करने वाला व्यापारी नहीं चाहता कि उसका गृह नष्ट हो किन्तु कदाचित् उसके विनाश का कारण उपस्थित हो जाय, तो उसकी रक्षा का पूरा उपाय करता है, किन्तु जब रक्षा का उपाय सफल नहीं होता तब घर में रखे हुए उन बहुमूल्य पदार्थों को निकाल लेता है और घर को अपनी आँखों के सामने नष्ट होते देखता है। इसी प्रकार व्रत, शील आदि गुणों का अर्जन करनेवाले श्रावक और साधु उन व्रतादि गुणरत्नों के आधारभूत शरीर की रक्षा पोषक आहार औषधि आदि के द्वारा करते हैं उसका नाश उन्हें इष्ट नहीं है। यदि शरीर में असाध्य रोग आदि उपस्थित हो जायँ तो वे उनको दूर करने का यथासाध्य प्रयत्न करते हैं और जब उनका दूर होना अशक्य मालूम पड़ता है तब सल्लेखना द्वारय अपने आत्मगुणों की रक्षा करते हैं और शरीर नष्ट होने देते हैं। तथा- सल्लेखना कब धारण की जाए? यह सबसे महत्त्वपूर्ण और सामयिक प्रश्न है। क्या भले-चंगे, हृष्ट-पुष्ट, सन्मार्ग प्रसार में रत, नीरोग, अल्परोगी, सुखी व्यक्ति को सल्लेखना ले लेना चाहिए? नहीं। यदि ऐसी सल्लेखना ली जाती है तो वह उचित नहीं। इसीलिए जैनाचार्य सल्लेखना लेने के काल/समय परिस्थितियों के सम्बन्ध में चौकन्ने रहे हैं और लगभग सभी आचार्यों ने सल्लेखना की विधि आदि के साथ सल्लेखना-काल का उल्लेख/निर्देश किया है। आचार्य समन्तभद्र के मत में यदि ऐसा उपसर्ग या दुर्भिक्ष आ जाय, जिसका प्रतीकार सम्भव न हो, ऐसा बुढ़ापा आ जाय कि धार्मिक क्रियायें भलीभाँति सम्पन्न न हो सकें और ऐसा रोग हो जिसका कोई उपचार सम्भव न हो तब व्यक्ति को चाहिए कि धर्मभावना पूर्वक शरीर का विसर्जन करे, यही सल्लेखना है। मूलाराधना में भी इन्हीं भावों को व्यक्त करते हुए कहा गया है- जिसका कोई प्रतिकार न हो ऐसा असाध्य रोग उपस्थित होने पर, रूप, बल, बुद्धि विवेकादि गुणों का नाश करनेवाली वृद्धावस्था आ जाने पर, देव, मनुष्य अथवा तिर्यंच आदि द्वारा आकस्मिक उपसर्ग आ जाने पर, चक्षु कर्म, इन्द्रिय की शक्ति क्षीण हो जाने पर, भविष्य में समाधि कराने वाले निर्यापकाचार्य नहीं मिलेंगे- ऐसा भय उत्पन्न हो जाने पर साधु को सल्लेखना धारण करना चाहिए। आचार्य सकलकीर्ति ने 'समाधि-मरणोत्साहदीपक' में लिखा है कि इन्द्रियों की शक्ति मन्द होने पर, अतिवृद्धता, उपसर्ग एवं व्रतक्षय के कारण उपस्थित होने पर, महान् दुर्भिक्ष पड़ने पर, असाध्य और तीव्र रोग आ जाने पर, जंघाबल (कायबल) क्षीण हो जाने पर धर्मध्यान एवं कायोत्सर्ग आदि करने की शक्ति क्षीण हो जाने पर, विद्वानों को चाहिए कि मोक्षप्राप्ति के लिए समाधिमरण करें। 1240 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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