SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृति में श्रावकों की उस आचार संहिता का वर्णन है जिस पर चलते हुए वह शनैः शनै: मुक्तिपथ की ओर अग्रसर होता है और अन्त में दिगम्बर मुद्रा धारण कर मुक्तिवधू का वरण करता है। श्रीमद् भागवत् में कहा गया है कि ऋषभदेव ने योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिए अवतार लिया था। जैन श्रावकों की आचार-संहिता में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का महत्त्वपूर्ण स्थान ' है। इसके साथ ही एक तेरहवाँ व्रत है जिसे 'व्रतराज' कहा गया है और वह है 'सल्लेखना' / श्रावक जीवन भर इस व्रत की तैयारी करे, ऐसा आचार्यों का मत है। सल्लेखना मरणपर्यंत ली जाती है, इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने इसे 'मारणान्तिकी' कहा है- ' 'मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता' -तत्त्वार्थसूत्र 7/22 लोक में यह कहावत भी प्रचलित है कि अन्त भला सो सब भला / यदि अन्त बिगड़ गया तो अनन्त संसार में परिभ्रमण निश्चित ही है। नीतिकारों ने कहा है “विराद्धे मरणे देव दुर्गतिदूरचोदिता। अनन्तश्चापि संसारः पुनरप्यागमिष्यति।।" सल्लेखना में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है काय और कषाय को कृश करना। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है- अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। प्रश्न है- क्या इस काय और कषाय को एकदम कृश किया जा सकता है? नहीं। इसके लिए काफी समय पहले से तैयारी करनी होगी। साधक आहारादि . का त्याग करते हुए काय को और परिणामों में शान्ति लाते हुए कषायों को कृश करता है। आचार्यों ने संवेग और वैराग्य भाव जगाने के लिए पुनः पुनः संसार की असारता तथा शरीर के स्वभाव का चिन्तन करने का उपदेश दिया है। यथा 'जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।' –तत्त्वार्थसूत्र 7/12 द्वादश अनुप्रेक्षाओं का पुनः पुनः चिन्तन निश्चय ही संसार, शरीर और भोगों के प्रति विरक्ति उत्पन्न कराने वाला है। अतः उसका चिन्तन साधक ही नहीं, सामान्य जनों को भी सदैव करना चाहिए। हमारे आचार्यों ने सल्लेखना की इस तैयारी के लिए 12 वर्ष का समय बताया है जिसे नियम सल्लेखना कहते हैं। कहीं-कहीं सल्लेखना और समाधिमरण को एक कहा गया है, किन्तु कहीं-कहीं दोनों में सूक्ष्म अन्तर बताया गया है। आचार्यों ने सभी व्रतों का फल सल्लेखना बताया है। "अन्तःक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्।।" -आ. समन्तभद्र प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 10 123
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy