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________________ मरण : एक निश्चित स्थिति & डॉ. सुरेश चन्द्र जैन ___ भारतीय दार्शनिक परम्परा में जीवन-मरण और पुनर्जन्म को आधार बनाकर चिन्तन की प्रक्रिया सतत प्रवाहमान रही है। जीवन और मरण दोनों को निश्चित मानकर ही जीवन जीने की विधि विकसित हुई और इसी बिन्दु को केन्द्र में रखकर विभिन्न धर्मों का अभ्युदय हुआ है। यों कहा जाय कि मरणाश्रित जीवन ही शाश्वत सत्य है, सम्भवतः इसीलिए अन्तिम यात्रा के समय ‘राम नाम सत्य है' या 'अरिहन्त नाम सत्य हैं' का उच्चारण कर जीवन जीने वाले को बोध कराया जाता है कि एक न एक दिन सबकी यही स्थिति होने वाली है। महाभारत में एक प्रसंग हैअज्ञातवास के समय तृषातुर होकर युधिष्ठिर ने भाइयों को जल की खोज करने भेजा तो जंगल में एक सरोवर तट पर यक्ष ने सभी से प्रश्न पूछे और उचित उत्तर न मिलने पर सबको अचेत कर दिया। अन्त में युधिष्ठिर स्वयं भाइयों को तलाशते हुए उस सरोवर-तट पर पहुँचे तो यक्ष ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उसमें एक प्रश्न यह भी था कि इस जगत का आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने कहा- संसार में सभी मरणशील हैं, फिर भी जीने की आकांक्षा से मनुष्य स्वयं को मरणरंहित मानकर प्रवृत्ति करता है। श्रमण-परम्परा में मरण के विषय में व्यापक ऊहापोह किया गया है। मरण को दार्शनिक पृष्ठभूमि में एक पर्याय.का विनाश माना गया है तो दूसरी का उत्पाद और जब तक सांसारिक जीवन है तब तक यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। नई पर्याय का उत्पाद, पुरानी का विनाश, परन्तु शाश्वत आत्मा का विनाश नहीं होता। पर्याय को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् न मानकर उसे सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् बनाने की प्रक्रिया का निरूपण करना जैन धर्म-दर्शन का अभिधेय रहा है। ___मरण के सन्दर्भ में शास्त्रीय विश्लेषण करते हुए जैन वाङ्मय में मुख्यतः तद्भव मरण और नित्यमरण, बाल मरण, पण्डित मरण आदि की विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। ___सामान्यतः आयुक्षय को मरण का कारण माना जाता है। प्रतिक्षण आयु आदि प्राणों का निरन्तर क्षय होते रहना नित्य मरण है। नूतन शरीर धारण करने के लिए पूर्वपर्याय का नष्ट होना तद्भव मरण कहा गया है।' 'जातस्य मरणं ध्रुवम्' की 11800 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004
SR No.004377
Book TitlePrakrit Vidya Samadhi Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Bharti Trust
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2004
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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