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________________ 30 तत्वसार स्थिति प्राप्तः कः स्थितः शुद्धस्वभावः रागादिरहितः शुद्धः स्वस्यात्मनो भवनं भावः, शुद्धश्चासौ स्वभावश्च शुद्धस्वभावः। पुनश्च कथम्भूतः शुद्धस्वभावः? 'अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो' न विकल्पा अस्मिन्निति अविकल्पः / पुनरपिकिविशिष्टो निश्चल: स्थानान्तराभावान्निर्गतश्चलनान्निश्चलः / नित्यो हि वस्तुतः उत्पत्तिव्ययाभावात सर्वकालत्वाच्च नित्यः। इति शुद्धस्वभावं ज्ञात्वा भव्यस्तत्त्वविद्भिनिरन्तरमनुभवनीय इति भावार्थः // 7 // . अथानु शुद्धभावस्य लक्षणं किमिति भगवान् देवसेनदेवः प्राहमुलगाथा-जो खलु सुद्धों भावो सो अप्पा तं च दंसणं णाणं / चरणं पि तं च भणियं सा सुद्धा चेयणा अहवा // 8 // संस्कृतच्छाया-यः खा शुद्धो भावः स आत्मा तं च दर्शनं ज्ञानम्। चरणमपि तच्च भणितं सा शुद्धा चेतना अथवा // 8 // टीका-इत्यवतारिकानन्तरं टोकाकर्ता मुनिः पवखण्डनारूपेण व्याख्यानं करोति तथाहि-'जो खलु सुद्धो भावो' यो हि पूर्वोक्तः खलु स्फुटं शुद्धो रागद्वेषमोहादिरहितः, कोऽसौ भावः आत्मनो भवनं भ.वः / सो अप्पा तं च सणं गाणं' स एव शुद्धभावो निश्चयनयत आत्मैव, तच्च पूर्वोक्त प्रसिद्ध वा दर्शनं दृश्यतेऽनेनेति स्व-परस्वरूपं तद्दर्शनम् / शायतेऽनेनेति स्व-परद्रव्यं तज्ज्ञानम् / चरणं पि तं च भणियं 'चरण गति-भ्रमणयोः / चर्यतेऽनेनेति स्वरूपे चरणं चारित्रमपि आगें शुद्ध भावकू कहै हैं भा० व०-खलु निश्चयकरि जो शुद्धभाव है सों आत्मा है / बहुरि सो ही दर्शन ज्ञान है / बहुरि सोही चारित्र कह्या है। अथवा शुद्ध चेतना कही है // 8 // प्रश्न-फिर भी वह शुद्धस्वभाव कैसा है ? उत्तर-निश्चल है, क्योंकि वह एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जानेके चलनस्वभावसे रहित है। प्रश्न-और वह शुद्ध स्वभाव कैसा है ? उत्तर-वस्तुतः उत्पत्ति और व्ययके अभाव होनेसे, तथा सर्वकाल स्थायी रहनेसे वह शुद्ध स्वभाव नित्य है। इस प्रकारका शुद्ध स्वभाव जानकर तत्त्व-वेत्ता भव्य पुरुषोंको निरन्तर ही उसका अनुभव करना चाहिए, यह इस गाथाका भावार्थ है // 7 // अब शिष्यने पूछा-उस शुद्ध भावका लक्षण क्या है ? भगवान् देवसेनदेव उत्तर देते हुए कहते हैं अन्वयार्थ-(जो) जो (खलु) निश्चयसे (सुद्धोभावो) शुद्धभाव है (सो) वह (अप्पा) आत्मा है। (तं च) और वह आत्मा (दसणं) दर्शनरूप (णाणं) ज्ञानरूप (चरणंपि) और चारित्ररूप (भणियं) कहा गया है / (अहवा) अथवा (सा) वह (सुद्धा) शुद्ध (चेयणा) चेतनारूप है। टीकार्थ-इस प्रकारसे गाथाका अवतरण करनेके अनन्तर टीकाकर्ता मुनि उसका व्याख्यान करते हैं / यथा-'जो खलु सुद्धो भावो' जो पूर्वोक्त राग, द्वेष, मोहादि विकारी भावोंसे रहित आत्मामें उत्पन्न होनेवाला भाव है, वही शुद्धभाव निश्चय नयसे दर्शन है। जिसके द्वारा स्व और परका स्वरूप देखा जाता है, वह दर्शन कहलाता है। वही शुद्ध भाव ज्ञान है / जिसके
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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