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________________ तत्वसार - 27 अथ ननु कि विशिष्टं स्वगततस्वलक्षणमित्याहमूलगाथा- जं पुणु सगयं तच्चं सवियप्पं हवइ तह य अवियप्पं / सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकप्पं // 5 // संस्कृतच्छाया-यत्पुनः स्वगतं तत्त्वं सविकल्पकं भवति तथा च अविकल्पम् / - सविकल्पं सास्रवकं निरानवं विगतसङ्कल्पम् // 5 // टीका-यत्पुनः स्वगतं तत्त्वं इत्यवतारिका। जं पुणु इत्याविपवखण्डनारूपेण वृत्तिकर्माचार्यश्रीकमलकीर्तिना व्याख्यानं क्रियते यत्पुनः स्वगतं स्वात्मगतं निजात्मलीनं तत्वं तद् द्विविध-सविकल्पकं भवति निर्विकल्पकं च / तथाहि-चतुर्णगुणस्थानवर्तिजघन्याराधकादितारतम्येन यावत् सूक्ष्मसाम्यपरायकषायान्तरे(?)सति तावत् सविकल्पं हि स्वात्मतत्त्वं भवति / तथैव साक्षात् क्षीणकषाये द्वादशगुणे निर्विकल्पं स्वगततत्वं भवति / सविकल्पं हि यतः कर्मानवकारणत्वात् सास्त्रवं विज्ञेयम् / निरास्त्रवं तत्त्वं तु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाल्यात आत्रवान्निर्गतं आस्रवेभ्यो यत्तत्तं निरास्रवतत्वम् / यतो वा विगता बिनण्टा सङ्कल्पा रागाविरूपास्तद्विगतसङ्कल्पं ततो निरास्रवम् / निरालवे सति संवरो भवति, संवरे सति कृतकर्मणां उदयरूपेण गलनं निर्जरा, निर्जराया सत्यां मोक्षो भवतीति ज्ञात्वा तत्त्वविद्धिः पुरुषः निरास्त्रवं निजात्मतत्त्वं निरन्तरं तं.भावनीयमिति // 5 // भा० व०-बहुरि जो स्वगत तत्त्व है सो सविकल्प होय है, तैसें ही अविकल्प है। सविकल्प है सो तो आश्रव सहित है, अर संकल्प-रहित है सो निराश्रव है आश्रव-रहित है // 5 // ... आगें अविकल्प तत्त्व कहैं हैं अन्वयार्थ-(पुणु) पुनः (ज) जो (सगयं तच्चं) स्वगत तत्त्व है वह (सवियप्पं) सविकल्प (तह य) तथा (अवियप्पं) अविकल्प रूपसे दो प्रकारका (हवइ) है। (सवियप्पं) सविकल्प स्वतत्व (सासवयं) आस्रव सहित है। और (विगयसंकप्प) संकल्प-रहित निर्विकल्प स्वतत्त्व (णिरासवं) आस्रव-रहित है। टीकार्थ-स्वंगत तत्त्वको कहनेके लिए इस गाथाका अवतार हुआ है। टीकाकार आचार्य श्री कमलकीति अब इसका व्याख्यान करते हैं-जो स्वगत अर्थात् स्वात्मगत या निज आत्म-लीन तत्त्व है, वह दो प्रकारका है–सविकल्पक और निर्विकल्पक / इनमेंसे चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य आराधकको आदि लेकर तारतम्यके क्रमसे सूक्ष्मसाम्पराय कषाय नामक दशम गुणस्थानके अन्त होनेतक सविकल्पक ही स्वात्मतत्त्व होता है। उसी प्रकार क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानमें साक्षात् निर्विकल्पक स्वगततत्त्व होता है / यतः सविकल्पक स्वगत तत्त्व कर्मोके आस्रवका कारण है, अतः उसे सास्रव जानना चाहिए / किन्तु निरास्रव तत्त्व मिथ्यात्व, अविरति, कषाय (प्रमाद) और योग नामक आस्रवसे निर्गत अर्थात् सभी कर्मास्रवके कारणोंसे रहित है, अतः वह निरास्रव तत्त्व है / अथवा रागादिरूप सभी प्रकारके संकल्प-विकल्प यतः बारहवें गुणस्थानमें विगत या विनष्ट हो जाते हैं, अतः वह निर्विकल्प स्वगत तत्त्व विगत-संकल्प एवं निरास्रव है। निरास्रव अर्थात् कर्मोका आस्रव रुकनेपर संवर होता है और संवर होनेपर उपार्जित कर्मोंकी उदयरूपसे गलगल कर निर्जरा होती है। और निर्जराके होनेपर मोक्ष प्राप्त होता है। ऐसा जानकर तत्त्वोंके जानकार पुरुषोंको निरास्रव जो निज-आत्मतत्त्व है, उसकी निरन्तर भावना करनी चाहिए // 5 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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