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________________ 26 तत्वसार पलब्धिलक्षणो भायो। भापकर्म-नोकर्मणां सर्वेषां तामस्त्येन भयात् केवलज्ञानाचनन्तगुणप्राप्तश्च द्रव्यमोक्षः / इत्येवं द्विविधस्य मोक्षस्य यतः प्राप्तिः स्यात्ततः पञ्चचपरमेष्ठिस्वरूप चिन्तनं तज्ज्ञभव्यजनैनिरन्तरं कार्यमिति भावार्थः // 4 // . मुक्त होना द्रव्यमोक्ष है / यह मोक्ष केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंकी प्राप्तिरूप है। इस प्रकार दो भेदरूप मोक्षकी प्राप्ति जिनसे होती है, उन पंचपरमेष्ठियोके स्वरूपका चिन्तन ज्ञानी भव्यजनोंको निरन्तर करना चाहिए, यह इस गाथाका भावार्थ है // 4 // विशेषार्थ-आत्मध्यानके अभ्यास करनेवाले भव्यजीवोंको सर्वप्रथम पंच परमेष्ठीके वाचक अक्षरोंका, बीजाक्षरोंका और मंत्राक्षरोंका जप करना आवश्यक है / पंचपरमेष्ठीके नमस्कारात्मक 'णमोकार' मंत्र पैंतीस अक्षरवाला है। 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः' यह सोलह अक्षरवाला मंत्र है। 'अरिहन्त सिद्ध' यह छह अक्षरवाला मंत्र है। 'अ सिं आ उ सा' यह पंच अक्षरवाला मंत्र है। 'अरहंत' यह चार अक्षरवाला मंत्र है। 'अईन या सिद्ध' यह दो अक्षरी मंत्र है / तथा 'ओं' यह एकाक्षरी मंत्र है। इनके अतिरिक्त 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः', ॐ ह्रीं अहं असि आउसा नमः' आदि इसी प्रकारके विभिन्न अक्षरोंसे निर्मित अनेक प्रकारके मंत्र गुरुजनोंके उपदेश से जानना चाहिए / अनेक अक्षरोंके संयोगसे बननेवाले मंत्रको बीज मंत्र कहते हैं। जैसे पंच परमेष्ठीके आदि अक्षर अरहंतका 'अ' अशरीरी सिद्धका 'अ' आचार्यका 'आ' उपाध्यायका 'उ' और मुनिका 'म्' इन अ + अ + आ + उ + म् = का व्याकरणके नियमसे संयोग करनेपर 'ओम्' या 'ओं' बीजमंत्र बन जाता है / इसी प्रकार 'ह्रीं' बीजाक्षरी मंत्र चौबीस तीर्थंकरोंका वाचक है। अभ्यासी व्यक्तिको सर्वप्रथम एकाक्षरी मंत्रका 108 वार हृदयकमलके आठ पत्रों और मध्ववर्ती कणिकाके आधारपर जाप प्रारम्भ करना चाहिए / जब इसकी साधना बिना चित्तचंचलताके सिद्ध हो जाय, तब दो अक्षरी मंत्रका जाप प्रारम्भ करे। इस प्रकार साधना करते हुए चार, पांच, छह आदि अक्षरोंके मंत्रोंके जापकी साधना करनी चाहिए / मंत्र-जापकी विधि यह है कि अति मन्दस्वरमें मंत्रका उच्चारण इस प्रकार करे कि उसकी ध्वनि अपने कानसे ही सुनाई पड़े, किन्तु दूसरेको सुननेमें न आवे / इस प्रकारसे जप-सिद्धि हो जानेपर उन्हीं मंत्रोंका 'मस्तकपर, भौंहोंके बीच में, नासाके अग्र भागपर, कठके मध्यमें, हृदय और नाभि आदि स्थानों पर मनको केन्द्रित करके ध्यान करना चाहिए। जपमें मन्दस्वरसे उच्चारण करते हुए ओष्ठ कम्पित होते हैं। किन्तु ध्यानमें मनके भीतर ही मंत्रोंका मौन रूपमें उच्चारण होता है। मंत्रजापसे ही लाखों गुणा पुण्यसंचय होता है। तथा मंत्र-जापसे मंत्र-ध्यानमें करोड़ों गुणा अधिक पुण्य-संचय होनेके साथ अशभ कर्मोकी असंख्यात गणी निर्जरा भी होती है। ग्रन्थकर्ता श्री देवसेनाचार्य कहते हैं कि उक्त प्रकारसे परमेष्ठी-वाचक अक्षरोंके जप और ध्यानसे बहुत प्रकारके सातिशय पुण्यका बन्ध होता है और उससे परम्परा मोक्ष भी प्राप्त होता है। - अब 'स्वगत तत्वका लक्षण क्या है. और उसकी क्या विशेषता है ? इस प्रकारका प्रश्न होनेपर आचार्य उत्तर देते हैं
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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