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________________ तत्त्वंसार सारः सुतत्त्वसारः, तं सुतत्त्वसारम् / किं कृत्वा ? नत्वा नमस्कृत्य / कान् ? परमसिद्धान्-परा उत्कृष्टा, मा लक्ष्मीः सम्यग्ज्ञानरूपा येषां ते परमाः, परमाश्च ते सिद्धाश्च परमसिद्धाः, तान् परमसिद्धान् / कथंभूतान् ? 'माणग्गिदड्ढकम्भे' ध्यानमेवाग्निः ध्यानाग्निः, ध्यानग्निना दग्धानि कर्माणि यैस्ते ध्यानाग्निदग्धकर्माणः, तान् ध्यानाग्निवग्धकर्मकान् / समासान्तर्गतानां च राजादोनामवन्तत्वाद् बहुव्रीही समासे कप्रत्ययो वा भवति, यथा-तद्धर्मा तद्धर्मक: परमस्वधर्मकः द्विमूर्द्धः त्रिमूर्ख इत्यादिषु अदन्तता भवति / पुनश्च किंविशिष्टान् परमसिद्धान् ? 'णिम्मलसुविसुद्धलद्धसम्भावे' निर्गतानि कर्ममलानि यस्मादसौ निर्मलः सुविशुद्धो लब्धःप्राप्तः समीचीनः शाश्वतों वा भावः सद्भावो यस्ते निर्मलसुविशुद्धलब्धसद्भावास्तान्, एवं गुणविशिष्टान् परमसिद्धान् नत्वा-वचनात्मकरूपेण द्रव्यस्तवेन, अन्तरङ्गे भावशुद्धधा केवलज्ञानाविगुणस्मरणरूपेण भावस्तवेन च स्तुत्वा सतत्त्वसारं प्रवक्ष्यामि // 1 // और अति विशुद्ध स्वभावको जिन्होंने प्राप्त कर लिया है, ऐसे सिद्ध भगवन्तोंको ग्रन्थकार देवसेनने नमस्कार कर सुतत्त्वसारको कहनेकी प्रतिज्ञा की है। सिद्धोंके लिए उन्होंने 'परम' विशेषण लगाया है। 'पर' नाम उत्कृष्टका है और 'मा' नाम लक्ष्मीका है। जिनको सम्यग्ज्ञानरूपी उत्कष्ट लक्ष्मी प्राप्त हो गई है, ऐसे परम सिद्धोंको उन्होंने नमस्कार किया है। 'नत्वा' इस वचनात्मक पदके द्वारा द्रव्यस्तव या द्रव्य नमस्कार किया है और केवलज्ञानादि गुणोंके स्मरणरूपं भावस्तव या भावनमस्कार किया है। जिनका अस्तित्व पाया जाता है उसे तत्त्व कहते हैं। उनमें आल्माके लिए प्रयोजनभूत तत्त्व 'सुतत्त्व' कहलाते हैं / ऐसे सात तत्त्वोंमें उपादेय शुद्ध आत्मतत्त्व है, वही सर्व तत्त्वोंमें सारभूत है, ऐसे सुन्दर तत्त्वसारको देवसेनाचार्य अपने इस ग्रन्थमें कहेंगे। विशेषार्थ-अनादि मूल मंत्रमें यद्यपि अरहंत परमेष्ठीको प्रथम स्थान प्राप्त है, तथापि श्री देवसेनाचार्यने उनको नमस्कार न करके इस गाथामें सिद्धोंको जो नमस्कार किया है, उसका अभिप्राय यह है कि उनका उद्देश्य शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करनेका है, और यतः सिद्ध परमेष्ठी अपने शुद्ध आत्म-स्वरूपको प्राप्त कर चुके हैं, अतः उनका स्वरूप सदा मेरे सम्मुख रहे, इसलिए उन्होंने उन्हें नमस्कार किया है। इसका कारण यह है कि जो जिसके गुणोंको पानेका अभिलाषी होता है, वह उसकी उपासना करता है। सिद्धोंने अपना शुद्धस्वरूप किस प्रकारसे प्राप्त किया? इसका उत्तर भी ग्रन्थकारने सिद्धोंके लिए दिये गये विशेषण द्वारा प्रकट कर दिया है कि ध्यानरूपी अग्निके द्वारा आत्म-स्वरूपको आवृत करनेवाले कमाको जलाकर उन्होंने अपना शद्ध आत्मस्वरूप प्राप्त किया है। . ध्यान क्या वस्तु है, उसकी प्राप्ति कैसे होती है ? और तत्त्वसार क्या है ? इन सब प्रश्नोंका उत्तर श्री देवसेनाचार्यने अपने इस ग्रन्थमें क्रमसे दिया है। उसका सार यह है कि जिस उपायसे यह संसारी जीव सांसारिक क्लेशोंसे, क्लेशोंके कारणभूत कर्म-बन्धनोंसे और उसके कारण राग, द्वेष, मोहादि भावोंसे छूटकर अपने शुद्ध बुद्ध ज्ञानानन्दमय निर्मल परम स्वभावको प्राप्त कर सदाके लिए कृतकृत्य, सुखी, शुद्ध और निश्चल दशाको प्राप्त कर लेता है, वही तत्त्वसार है। उस तत्त्वसारकी प्राप्तिके लिए धर्मध्यान परम्परा कारण है और शुक्लध्यान साक्षात् कारण है। इस ध्यानकी प्राप्तिके लिए बाहिरी सभी प्रकारके परिग्रहोंका और भीतरी सभी प्रकारके संकल्प
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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