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________________ तत्त्वसार पामेन आसंसारप्रधावितमोहमहाराजशीघ्रगामितमासंग्लिलितपदगायमानाऽनादिमिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिभावादिविषय-कषाय - ठकपेटकदुर्जयनिर्जीयसर्वविद्वीतरागोपविष्टागमाध्यात्मसिद्धान्तशास्त्रावतारितोपायकृतोपयोगेन समीप्सितसाक्षादुपेयसंसिद्धिशिष्टाचारपरिपालन-नास्तिकतापरिहारनिविघ्न-(शास्त्र-परिसमाप्तिफलचतष्टयेन स्वगततत्त्व-परगततत्त्वभेदभिन्न तत्त्वसार ग्रन्थमहं प्रवक्ष्यामीति कृतप्रतिज्ञेन परमाराध्य-परमपूज्य-भट्टारकधीदेवसेनकृतसूत्रमिदं संवर्ण्यते मूलगाथा-झाणग्गिदड्ढकम्मे णिम्मलसुविसुद्धलद्धसब्भावे / . गमिऊण परमसिद्धे सुतच्चसारं पवोच्छामि // 1 // संस्कृतछाया-ध्यानाग्निदग्धकर्मकान् निर्मलसुविशुद्धलब्धसभावान् / ___नत्वा परमसिद्धान् सुतत्त्वसारं प्रवक्ष्यामि // 1 // - टीका-प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामि / कम् ? तं सुतत्त्वसारम् / तद्यथा-तत्त्वमित्यादि, तस्य भावस्तत्त्वम् / 'तत्त्वौ भावे' इति त्वप्रत्ययः। शोभनानि च तानि तत्त्वानि सुतत्त्वानि, सुतत्त्वानां भा० व०-मैं जो देवसेननामा आचार्य हूँ सो सुंदर जे तत्त्व तिनका सारकू कहूंगा / कहाकरि कि उत्कृष्ट जे सिद्ध तिनकू नमस्कार करि। कैसे हैं सिद्ध ? ध्यानरूप जो अग्नि ता करि दग्ध किये हैं कर्म जिननें, अर नष्ट भये हैं कर्ममल जातें सो तो निर्मल कहिए अतिशय करि विशुद्ध, रागादिक दोष रहित प्राप्त भया है सूविशद्ध समीचीन स्वभाव जिनका, ऐसे // 1 // भेदरूप रत्नत्रयके अनुभव करनेसे जिनके सम्यग्ज्ञानरूप सूर्य प्रकट हुआ है, अनादि संसारसे साथ दौड़नेवाले मोहमहाराजके शीघ्रगामी, मोहान्धकारसे पाद-चारी यात्रियोंको निगलनेवाले ऐसे अनादिकालीन मिथ्यादर्शन; अज्ञान, अविरतिभावादि विषय-कषायरूप दुर्जय ठगोंके समहको जीत कर सर्वज्ञ वीतरागदेवके द्वारा उपदिष्ट आगम और अध्यात्म सिद्धान्तशास्त्रोंके अवतारके उपायमें जिन्होंने अपना उपयोग लगाया है, तथा जो साक्षात् उपेय ( मोक्ष ) तत्त्वकी संसिद्धि, शिष्टाचारपरिपालन, नास्तिकता-परिहार और निर्विघ्न शास्त्र-परिसमाप्तिरूप चार फलोंकी प्राप्तिकी इच्छा वाले हैं ऐसे परम आराध्य, परम पूज्य, भट्टारक श्रीदेवसेनाचार्यने 'स्वगत तत्त्व और परगत तत्त्वसे दो भेदवाले तत्त्वसार नामक ग्रन्थको मैं कहूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए यह वक्ष्यमाण गाथासूत्र कहा है अन्वयार्थ (झाणग्गिदड्ढकम्मे) आत्मध्यानरूप अग्निसे ज्ञानावरणादि कर्मोंको दग्ध करनेवाले, (णिम्मलसुविसुद्धलद्धसब्भावे) निर्मल और परम विशुद्ध आत्मस्वभावको प्राप्त करनेवाले (परमसिद्ध) परम सिद्ध परमात्माओंको (णमिऊण) नमस्कार करके (सुतच्चसारं) श्रेष्ठ तत्त्वसारको मैं देवसेन (पवोच्छामि) कहूँगा। . टीकार्य-यद्यपि द्रव्यदृष्टिसे आत्मा सर्वप्रकारके मलोंसे रहित निर्मल और सर्व प्रकारके कलंकोंसे रहित परमशुद्ध है, तथापि अनादि कालसे उसके साथ जो ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागद्वेषादि भावकर्म और शरीरादि नोकर्म लग रहे हैं, उनसे यह वर्तमानमें समल और अशुद्ध हो रहा है / आत्माकी इस मलिनता और अशुद्धताको शुक्ल-ध्यानरूप अग्निके द्वारा जला करके अपने निर्मल
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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