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________________ तत्त्वसार प्रकटयन् आत्मानमपि प्रकटयति प्रकाशयतीत्यर्थः / इत्यात्मशक्ति ज्ञात्वा मिथ्यात्वायज्ञानभावोपाजितकर्मोदयोत्पन्नपञ्चेन्द्रिय-विषय-रागादिविभावभावांस्त्यक्त्वा तमेव शुद्धात्मानमुपादेयबुद्धधा भो भव्यवरसिंह, अमरसिह, भवन्तो भावयन्त्विति भावार्थः // 30 // अथ पुनरपि कस्मिन् सति किमयमात्मा करोतीति प्रकटयतिमूलगाथा-मण-वयण-कायजोया जइणो जइ जंति णिव्वियारत्तं / .तो पयडइ अप्पाणं अप्पा परमप्पयसरूवं // 31 // संस्कृतच्छाया--मनोवचनकाययोगा यतेयदि यान्ति निर्विकारत्वम् / तदा प्रकटयति आत्मानं आत्मा परमात्मस्वरूपम् // 31 // टीका-'मण-वयण-कायजोया जइणो जइ जति णिन्वियारत्तं' इत्यादि, पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते-यदि चेद् यतेर्यतीश्वरस्य निर्विकारत्वं प्राप्नुवन्ति / के ? ते मनोवचनकायरूपा आगें कहै हैं-मन वचन कायका योग जैसे जैसे निर्विकार होय तैसे तैसें आत्मा परमस्वरूप कू प्रगट कर है भा० व०-यतीश्वरकै मन वचन काय जोग हैं ते निर्विकारताकू प्राप्त होत संत तो तिस यतीकै यो आत्मा है सो अंतरात्मा परमात्मस्वरूप ब्रह्मरूप आत्माकू ही स्वयमेव प्रगट करै है, अर प्रगट होय है, त ही तें निर्विकार स्वशुद्धात्मा उपादेय है ग्रहण करणे योग्य हैं॥३१॥ .. 'तह तह पयडइ अप्पा अप्पाणं' वैसे वैसे ही यह आत्मा, जिसने कालादि लब्धिको प्राप्त किया है और निकट भव्यशिरोमणि है, वह अपने आत्माको स्वयं प्रकट करता है, अर्थात् प्रकाशित करता है। प्रश्न-कैसे और किसके समान प्रकाशित करता है ? ... उत्तर-'जह णहे सूरो' अर्थात् जैसे आकाशमें सूर्य घट, पट, स्तम्भ, कुम्भ आदि द्रव्योंसे भरे हुए भुवनको प्रकाशित करता हुआ अपने आपको भी प्रकाशित करता है। इस प्रकार आत्माकी शक्तिको जानकर मिथ्यात्व आदि अज्ञानभावसे उपार्जित कर्मों के उदयसे उत्पन्न पांचों इन्द्रियोंके विषयों रागादि विभाव भावोंको छोड़कर उसी शुद्ध आत्माकी उपादेयबुद्धिसे हे भव्योंमें श्रेष्ठ सिंह अमरसिंह, आप भी भावना करें। यह इस गाथाका भावार्थ है॥३०॥ ... अब फिर भी 'क्या होनेपर' यह आत्मा क्या करता है, यह प्रकट करते हैं अन्वयार्थ-(जइणो) योगीके (जइ) यदि (मण-वयण-कायजोया) मन, वचन और काययोग (णिव्वियारत्त) निर्विकारताको (जंति) प्राप्त हो जाते हैं (तो) तो (अप्पा) आत्मा (अप्पाणं) अपने (परमप्पयसरूव) परमात्मस्वरूपको (पयडइ) प्रकट करता है। टीकार्य-'मण-वयण-कायजोया' इत्यादि गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं यदि यति अर्थात् मुनिराजके परिस्पन्दरूप मन वचन काय ये तीनों योग निश्चलताको प्राप्त होते हैं, 'तो
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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