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________________ व्यापारे च निरखे सतीत्येवं मत्वा दुनिात-रौद्रद्वयं त्यक्त्वा सर्वोचमेनासन्नभव्येन धर्म-शुक्लध्यानवयं निरन्तरमुपादेयबुद्धघा भावनीयमिति भावार्थः // 29 // अथानन्तरं दृष्टान्तेन सद्-ध्यानमाहात्म्यं पुनरपि विवृणोति-- मूलगाथा-जह जह मणसंचारा इंदियविसया वि उवसमं जंति / तह तह पयडइ अप्पा अप्पाणं जह णहे सूरो // 30 // संस्कृतच्छाया-यथा यथा मनःसंचारा इन्द्रियविषया अपि उपशमं यान्ति / / तथा तथा प्रकटयति आत्माऽऽत्मानं यथा नभसि सूर्यः॥३०॥ टीका-'जह जह मणसंचारा' इत्यादि, पदलण्डनारूपेण टीकाकारेण मुनिना प्रकटीक्रियतेयथा यथोपशमं यान्ति। के के ? मणसंचारा इंदियविसया वि उवसमं जंति' कर्मोदयप्रेरितसंचलितमनसः संव्यवहाराः पञ्चेन्द्रियविषयाश्च शान्ति गच्छन्तीत्यर्थः / 'तह तह पयडइ अप्पा अप्पाणं' तथा तथाध्यमात्मा लब्धकालादिलब्धिरासन्नभव्यसारः स्वात्मानं स्वयं प्रकटयति प्रकाशयति / कथं क इव वा? 'जह णहे सूरों यथा नभस्याकाशे सूर्यो घट-पट-स्तम्भ-कुम्भादि-द्रव्यभरितं भुवनं आगे कहै हैं-जैसे जैसें इंद्रिय-मनका संचार रुकै है तैसें आत्मा प्रगट होय है भा० व०-जैसे जैसे कर्मोदय प्रेरित संक्लेशित मनका संचार व्यवहार पंचेंद्रिय विषय जे हैं ते शांति कू प्राप्त होय हैं तैसें तैसें यो आत्मा लब्ध भया है कालादिलब्धि निकट भव्यता स्मरण करता स्वात्मानं स्वयमेव प्रगट करै है। कैसे कौनकी नाई ? जैसे आकाश विर्षे सूर्य सो घट पट स्तम्भ कुंभादिक द्रव्यकरि भर्या जो जगतकू ही प्रगट करै है प्रकाशे है // 30 // __ ऐसा जानकर आत-रौद्ररूप दोनों दुानोंको छोड़कर पूरे उद्यमके साथ निकट भव्यजीवको धर्म और शुक्ल इन दोनों ध्यानोंकी निरन्तर उपादेयबुद्धिसे भावना करनी चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है // 29 // अब इसके अनन्तर दृष्टान्त-द्वारा सद्-ध्यानके माहात्म्यको फिर भी सूत्रकार वर्णन करते हैं अन्वयार्य-(जह जह) जैसे जैसे, (मणसंचारा) मनका संचार और (इंदियविसया वि) इन्द्रियोंके विषय भी (उवसम) उपशमभावको (जंति) प्राप्त होते हैं, (तह तह) वैसे वैसे ही (अप्पा) अपना आत्मा (अप्पाणं) अपने शुद्धस्वरूपको (पयडइ प्रकट करता है। (जह) जैसे (णहे) आकाशमें (सूरो) सूर्य। टोकार्थ-'जह जह मणसंचारा' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि अर्थ प्रकट करते हैंजैसे जैसे उपशमभावको प्राप्त होते हैं / प्रश्न-कौन कौन उपशमभावको प्राप्त होते हैं। उत्तर-'मणसंचारा इंदियविसया वि उवसमं जंति' अर्थात् कर्मके उदयसे प्रेरित अतएव चलायमान मनके सभी व्यापार और पांचों इन्द्रियोंके विषय उपशम अर्थात् शान्तिको प्राप्त होते हैं।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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