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________________ 452 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ तदाकारस्यापरस्य ग्राह्यतया बहिस्तत्राऽप्रतिभासनात् / बहिर्गाहावभासश्च बहिरर्थव्यवस्थाकारी, नान्तरावभासः। यदि तु सोऽपि तव्यवस्थाकारी स्यात् तथासति हृदि परिवर्तमानवपुषः सुखादेरपि प्रतिभासाद् बहिस्तव्यवस्था स्यात् , तथा च 'सुखाद्यात्मकाः शब्दादयः' इति सांख्यदर्शनमेव स्यात् / अथ सुखादिराकारो बाह्यरूपतया न प्रतिभातीति न बहिरसौ, जातिरपि तहिन बहीरूपतया प्रति भातीति न बहीरूपाऽभ्युपगन्तव्या। यतः कल्पनामतिरपि दर्शनदृष्टमेव घटादिरूपं बहिरुल्लिखन्ती तगिरं चान्तः प्रतिभाति, न तु तद्वयतिरिक्तवपुषं जातिमुद्द्योतयति / तन्न तदवसेयापि बहिर्जातिरस्ति। तैमिरिकज्ञाने बहिष्प्रकाशमानवपुषोऽपि हि केशोण्डकादयो न तथाऽभ्युपेयन्ते, बाध्यमानज्ञानविषयत्वात् / जातिस्तु न बहोरूपतया क्वचिदपि ज्ञाने प्रतिभातीति कथं सा सत्त्वाभ्युपगमविषयः ? बुद्धिरेव केवलं घट-पटादिषु प्रतिभासमानेषु 'सत सत्' इति तुल्यतनुराभाति / यदि तहि न बाह्या जातिरस्ति बुद्धिरपि कथमेकरूपा प्रतिभाति, न हि बहिनिमित्तमन्तरेण तदाकारोत्पत्तिमती सा युक्ता ? ननु केनोच्यते बहिनिमित्तनिरपेक्षा जातिमतिरिति, किन्तु बहिर्जातिन निमित्तमिति / बाह्यास्तु व्यक्तयः काश्चिदेव जातिबुद्धेनिमित्तम् / [व्यक्ति को देखते समय जाति का भान नहीं होता-उत्तरपक्ष / नैयायिक ने जो दीर्घ पूर्वपक्ष स्थापित किया है उसके सामने अब उत्तरपक्षी अपनी बात प्रस्तुत करते हुए कहता है कि नैयायिक का यह प्रतिपादान गलत है-कारण यह है कि, जब व्यक्ति को देखते हैं तब बाह्यरूप से ग्राह्याकारवाली जाति का अपने स्वतन्त्ररूप से प्रतीति में अवतार देखा नहीं जाता / जिस समय में घट और पट दो वस्तु का प्रतिभास होता है उसी वक्त घटादि से भिन्न या अभिन्न ऐसी किसी जाति का भास नहीं होता जो घटादि में ही विद्यमानस्वरूपवाली हो। क्योंकि, घटादि से अन्य कोई सामान्याकार वहाँ बाह्यदेश में ग्राह्यरूप से लक्षित ही नहीं होता / और यह तो निर्विवाद है कि बाह्य अर्थों की व्यवस्था को बाह्यदेश में ग्राह्यरूप से प्रतीत होने वाली वस्तु का अवभास ही कर सकता है, भीतरी अवभास नहीं / यदि भीतरी अवभास को भी बाह्यवस्तु की व्यवस्था का संपादक मानेंगे तब तो जिसका स्वरूप हृदय के भीतर में भासित होता है वैसे सुखादि का प्रतिभास भी सुखादि को बाह्यपदार्थ के रूप में ही स्थापित करेगा, परिणाम यह होगा कि सांख्यदर्शन में जो यह माना जाता है कि बाह्यरूप से भासमान शब्दादि से सुखादि भिन्न नहीं है-उसी का समर्थन हो जायेगा। आशय यह है कि शब्दादि को तो सब बाह्य मानते हैं, सुखादि को नहीं। किन्तु सांख्यदर्शन में सुखादि को आत्मा का नहीं, प्रकृति ( बुद्धि ) रूप बाह्यपदार्थ का ही गुण धर्म माना जाता है / इसका समर्थन हो जायेगा। यदि ऐसा कहें कि-सुखादि आकार बाह्यरूप से भासित नहीं होता अत एव बाह्य नहीं हो सकता ।-तो उसी तरह जाति भी घटादिवत् बाह्यरूप से भासित नहीं होती है अत: उसे बाह्यपदार्थ के रूप में मानना असंगत है। कारण, सविकल्पज्ञान ( जिसको बौद्ध प्रमाण ही नहीं मानते वह ) भी निर्विकल्पज्ञान में दृष्ट घटादि पदार्थ को और उसकी प्रतिपादकवाणी को बाह्यरूप में भासित करता हुआ स्वयं भीतर में अनुभूत होता है, किन्तु कहीं भी बाह्यरूप से जाति का उद्भासन नहीं करता है। सारांश, बाह्यरूप में जाति सविकल्पबोधगम्य भी नहीं है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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