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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उजाति० 451 अथैकेन्द्रियावसेयत्वात् जातिव्यक्त्योरेकता रूप-रसादौ तु भिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वात् भेदः / तद'यसंगतम् , यतः एकेन्द्रियग्राह्यमपि वाताऽऽतपादिकं समानदेशं च भिन्न प्रतिभातीति भिन्नवपुरभ्यूपेयते तथा प्रतिनियतेन्द्रियविषयमपि जाति-व्यक्तिद्वयं भिन्न, भिन्नप्रतिभासादेव / तथाहि-घटमन्तरेणापि पटग्रहणे 'सत्-सत्' इति पूर्वप्रतिपन्ना सत्ताऽवगतिईष्टा, यदि तु व्यक्तिरेव सती न जातिः तत्सत्वेऽपि तदव्यतिरेका च, तथा सति व्यक्तिरूपवत् तदननुगतिरपि व्यक्त्यन्तरे प्रसज्येत / प्रतीयते च सदरूपता युगपद घट-पटादिषु परस्परविविक्ततनुष्वपि सर्वदा / तेनैकरूपैव जातिः, प्रत्यक्ष तथाभूताया एव तस्याः प्रतिभासनात् , शब्द-लिंगयोरपि तस्यामेव सम्बन्धग्रहणमिति ताभ्यामपि सा प्रतीयते / तदेवं प्रत्यक्षादिप्रमाणावसेयत्वात् सत्तायाः न तन्निराकरणाय प्रसंगसाधनानुमानप्रवृत्तिरिति / __ असदेतत्-यतो न व्यक्तिदर्शनवेलायां स्वरूपेण बहि ह्याकारतया प्रतीतिमवतरन्ती जातिरुद्भाति / नहि घट-पटवस्तुद्वयप्रतिभाससमये तदैव तव्यवस्थितमूतिभिन्नाऽभिन्ना वा जातिराभाति, रिक्तरूप में व्यावृत्तरूपता का भान होता है तो फिर व्यक्तिस्वरूप से भिन्नरूप में भासमान जाति को अलग रूप में ही मान्यता प्रदान क्यों न को जाय ? [समानेन्द्रियग्राह्य होने पर भी जाति--व्यक्ति भिन्न है] प्रतिपक्षी:-जाति और व्यक्ति ये दोनों सामान इन्द्रिय से ग्राह्य है अतः उनमें अभेद होता है, रूप और रसादि सामानदेश-कालवर्ती होने पर भी भिन्न भिन्न इन्द्रिय से ग्राह्य है अत: उसमें भेद होता है। नैयायिक:-यह भी असंगत है क्योंकि वात और आतप दोनों समानदेशवर्ती है इतना ही नहीं, समानेन्द्रिय (स्पर्शन) से ग्राह्य भी होते हैं, फिर भी उन का प्रतिभास भिन्न भिन्न होने से उन दाना को भिन्नस्वरूप माना जाता है। तो इसी प्रकार प्रतिनियत ( किसी अमूक ही ) इन्द्रिय के विषय होते हुए भी भिन्न प्रतिभास के कारण जाति और व्यक्ति को अलग अलग ही मानना चाहिये / जैसे देखिये-घट न होने पर भी घट में 'सत्-सत्' इस प्रकार पूर्वोपलब्ध सत्ता जाति का उपलम्भ पट के उपलम्भ में होता हुआ देखा जाता है / यदि केवल व्यक्ति ही परमार्थरूप होतो, जाति नहीं, अथवा जाति पारमार्थिक होने पर भी व्यक्ति से अभिन्न ही होती तब तो पट के उपलम्भ में जैसे व्यक्तिस्वरूप का अननुगम होता है तथैव जाति का भी अननुगम ही होता, दिखता तो अनुगम है। परस्पर भिन्न स्वरूपवाले घट-पटादि में भी एक साथ ही अनुगत रूप से सद्रूपता का उपलम्भ सदा होता है / इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्ति भिन्न होने पर भी सत्ता आदि जाति एकरूप ही होती है / प्रत्यक्ष में भी वह एकरूप ही भासित होती है। शब्द के संकेत का ग्रहण भी जाति में ही होता है और लिंग में भी जो लिंगी के अविनाभाव सम्बध का ग्रहण होता है वह भी जाति के साथ ही होता है व्यक्ति के साथ नहीं, अत एव समान जातीय भिन्न भिन्न शब्द से समान अर्थ भासित हो सकता है और समानजातीय लिंग से समानजातीय लिंगी का भान होता है उसमें जाति भी भासित हुए विना नहीं रहती। निष्कर्षः-सत्ता जाति प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उपलब्ध होती है अतः उसके खण्डन के लिये प्रसंग साधनरूप अनुमान की प्रवृत्ति सार्थक नहीं है / [ पूर्वपक्ष समाप्त ]
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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