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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 329 तद्रूपावरणं कर्म नवमं न प्रसज्यते। चारित्रमोहनीयस्य क्षयादेव तदुद्भवात् // 86 // यद्यदात्मकं तत्तदावरककर्मणः क्षयादुद्भवति, यथा केवलज्ञानस्वरूपं तदावरणकर्मणः क्षयात् / चारित्रात्मकं च प्रकृतमात्मनो रूपमिति चारित्रमोहनीयकर्मण एव क्षयादुद्भवति। न च पुनस्तदावरणं कर्म नवमं प्रसज्यतेऽन्यथातिप्रसङ्गात् / क्षीणमोहस्य किं न स्यादेवं तदिति चेन्न वै। तदा कालविशेषस्य तादृशोऽसम्भवित्वतः / / 87 // तथा केवलबोधस्य सहायस्याप्यसंभवात् / स्वसामग्र्या विना कार्यं न हि जातुचिदीक्ष्यते // 48 // कालादिसामग्रीको हि मोहक्षयस्तद्रूपाविर्भावहेतुर्न के वलस्तथाप्रतीतेः। उत्तर - नाम, वेदनीय और गोत्र इन तीन अघातिया कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ चौथा समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति ध्यान ही क्षायिक चारित्र की विशिष्टता है (यह हम पहले कह चुके हैं।)। उस चारित्र के अन्तिम स्वभाव का आवरण करने वाला कोई नौवाँ कर्म नहीं है, क्योंकि चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय से ही क्षायिक चारित्र की उत्पत्ति होती है।॥८६॥ / ... जो स्वभाव जिस भाव स्वरूप होता है, वह उस भाव के आवरण करने वाले कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है, जैसे आत्मा का केवलज्ञान स्वभाव केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्रकट होता है। इस प्रकरण में आत्मा का रूप (स्वरूप) चारित्रात्मक है- इसलिए वह चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है, अन्य कोई नौवाँ कर्म चारित्र का आवरण करने वाला नहीं है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो आठ कर्मों के स्थान में अनेक कर्मों के मानने का प्रसंग आयेगा। - 'चारित्र गुण का प्रतिबंधक चारित्रमोहनीय है तब तो क्षीणमोह वाले १२वें गुणस्थान में चारित्र की पूर्णता हो जानी चाहिए।' ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि १२वें गुणस्थान में चारित्रमोह के सर्वथा नाश हो जाने पर भी चारित्र की पूर्णता करने वाले कालविशेष की असंभवता है। उसी प्रकार १३वें गुणस्थान का केवलज्ञान भी चारित्र की पूर्णता करने में समर्थ नहीं है क्योंकि १३वें गुणस्थान में भी चारित्रस्वभाव पूर्ण करने में सहायक कालविशेष की असंभवता है। अपनी पूर्ण सामग्री के बिना कारण, कार्य को करते हुए कभी दृष्टिगोचर नहीं होते // 87-88 // काल, क्षेत्र, आत्मीय परिणाम आदि सामग्री की अपेक्षा रखता हुआ ही मोहनीय कर्म का क्षय उस चारित्र के स्वभाव को प्रकट करने में कारण है। अकेले मोहनीय कर्म का क्षय चारित्र के पूर्ण स्वभाव को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है- क्योंकि ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अर्थात् प्रत्येक कार्य में काल, द्रव्य, क्षेत्र, भावादि की अपेक्षा होती है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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