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________________ आश्वासना के बाद भी उनका सहयोग ना मिलना भी है। सहयोग की प्रतीक्षा में ही एक वर्ष व्यतीत हो गया। जैसे-तैसे इस कार्य में मैं प्रवृत्त हुआ। मुझे इस दौरान अनेक विद्वानों से सम्पर्क करने का सुअवसर आया। सर्वप्रथम ही मुझेगैन विद्वत्परम्परा विधुत एवंमान्य स्व. डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया, बीना का समागम प्राप्त हुआ। जिन्होंने मुझे विषयचयन करने के निमित्त अनेक सुझाव दिये। उनकी विद्यार्थियों के प्रति उमड़ठो वाली सहज सहानुभूति व उचित परामर्श की वृत्ति मुझे आज भी याद है। डॉ. कमलचन्द्र सोगाणी से जयपुर में ही भेट हुई। उनके सुझावव उचित मार्गदर्शन मेरी कार्यप्रणाली को तय करने में सहायक हुआ।आचार्य संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. शीतलप्रसादजी ने मुझमें जिस उत्साह का संचार किया, वही मेरे कार्य को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने का एकमेव साधता रहा। उन्होंने मेरे द्वारा नियोजित किये गये विचारों को देखा-सुना ही नहीं अपितु उनमें अपेक्षित परिवर्तन और परिवर्तन कराठोका पुरुषार्थ भी किया। वाराणसी प्रवास के दौरान पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निर्देशक डॉ. भागचन्दजैना 'भास्कर' एवं सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के जैनदर्शन विभागाध्यक्ष डॉ. फूलचन्द्रजा 'प्रेमी सेजो महत्त्वपूर्णविमर्श हुआ वह हमारे कार्यका पाथेयरहा।। मुनि श्री 108 मार्दवसागर जी महाराज के साथ सम्मेदशिखरजी की तीर्थयात्रा का शुभ प्रसंग आया। उस दौरान जहाँ मुझे आचार्य शुभचन्द्र के निर्देशों के अनुसार अनेक बार साधनामय जीवन जीने के अवसर उपलब्ध हुए, वहीं अनेक स्थानों पर सरस्वति भवनों के अवलोकना का लाभ भी। जिहासे मेरे विचारों एवं लेखन कार्य में पर्याप्त विकास हुआ। - इस शोध प्रबन्ध को आकार देठो की मुझमें किश्चित् भी सामर्थ्य नहीं होती, यदि माँ जिनवाणी एवं उनके सपूतों की परम शीतल वसुखदछव मेरे सिरपरन होती। इसमें व्यक्त भावाँ जिनवाणी की गोद में खेलने वाले शिशु की भाँति तोतलीभाषा में ही हैं। उनके अभिप्राय यथावत रखने में यदि कहीं कोई त्रुटि हईहोतोवेमुझे इतना ज्ञानदें कि उसे निकाल सकूँ और उठाके उद्देश्यानुकूल मैं भी उनके प्रति अपना पुरुषार्थ कर सकूँ। माँ जिनवाणी एवं उठाके लाडले आचार्य भगवन्तों के प्रति मैं शतश: नमना करता हुआप्रमुदित होता हूँ। सम्यग्दर्शन, शान व चारित्र की साक्षात्मूर्ति तप:पूत, धर्मप्रभावक, परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के श्री चरणों में सादर नमोऽस्तु निवेदित करता हूँ। क्योकि इस कार्य को करने में सर्वप्रथम आपका आशीर्वाद मिला।प्रथम प्रतिमा एवं ब्रह्मचर्यव्रत के संकल्प और धार्मिक एवं संस्कृत भाषा के विशेष (xv)
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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