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________________ प्राक्कथन कुछवर्ष पूर्वमध्यानसारनामकलघुकाय ग्रन्थका हिन्धनुवाद किया था। उस समय मन में विचार आया कि जैन योग-ध्यान विषयक उपलब्ध सभी ग्रन्थों को संग्रहीत करएक गैठा-ध्यानकोश बनाया जाय किन्तु बाद में विज्ञजनों के परामर्श से जैतादर्शन के किसी विषय को लेकर शोधप्रबन्ध लिखा जाय, यह भावना प्रबल हो उठी। बहतऊहापोह करने के बादजैन परम्परामें ध्यानाविषयपरशोधकार्य करने का निर्णय प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्रजी के परामर्श से लेने की ओरप्रवृत्त हआ। किन्तु उन्होंने अपने सुझाव में इतना और जोड़ दिया कि अच्छा हो किसी ग्रन्थ पर ही शोध किया जाये। यह विचार मुझे ग्राह्य लगा। मैंने तुरन्त ही आचार्य शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णवको अपने शोध का विषय बनाया।क्योकि आध्यात्मिक विषयों में मेरी विशेष रुचिअध्ययन काल सेही रही है और जनदर्शन में ज्ञानार्णव आध्यात्मिक ध्यान योग का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है। इसमें ध्यान साधना से सम्बन्धित प्रायः सम्पूर्ण सामग्री उपलब्ध है। इसलिए ज्ञानार्णव ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार आचार्य शुभचन्द्र के प्रति मेरी विशेष श्रद्धा-भक्तिवभाराग सदा विकसित होता रहा है। जब मैंने शोध कार्य आरम्भ किया, तब तक मुझे इसकी जानकारी नहीं हो सकी थी कि इस ग्रन्थ पर मुझसे पहले भी किसी ने शोधकार्य करने का उधम किया है। इसी दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि साध्वी डॉ. दर्शनलता जी को ज्ञानार्णव पर एक शोध प्रबन्धप्रस्तुत किया था और वह अब प्रकाशित भी हो गया है। मैंने सोचा इतने महान् योगी, महाकवि एवं सन्त के सम्बन्ध में एक नहीं अनेक शोधप्रबन्ध लिखेजाए तब भी कम होगा।अत: ऐसा विचार करके मैंने इस कार्य को जारी रखा। . ज्ञानार्णव में साधनामय जीवन जीने वाले साधकों के लिए साधनामार्ग के साधकव बाधककारणों का विवरण जिसपारदर्शिता एवं विशदता केसाथ प्रस्तुत किये गये है, उनकी आज भी प्रासंगिकता उतनी ही है जैसी उसके रचनाकाल में होगी। कारण आज का मानव जिस आपाधापी और तनावपूर्ण जीवन जीने को विवश होता हुआ आध्यात्मिक सुख-शान्तिदूरहोअपने परम लक्ष्य सेही भ्रष्ट होता दिखाई देता है। उसे जीवन जीने का समीचीन मार्गदर्शन एवं लक्ष्य की ओर गतिशील करने के लिए ऐसे हीग्रन्थराजसहायक हो सकते हैं। इस शोध कार्यको करने में मुझे अपेक्षाकृत विलम्ब हुआ, इसका प्रमुख कारण नेत्रज्योति की मन्दता है। अन्य कारणों में साहित्य की अनुपलब्धता एवंसहयोगियों के (xiv)
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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