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________________ अधःप्रवृत्तिकरण आदि भाव हैं। उस मोहनीय कर्म का अभाव होने पर ही उपशमादि की प्रतिपत्ति-होती है। दूसरे प्रकारों से उन उपशम आदि के होने का अभाव है।' उपशमसम्यक्त्व - उपशम सम्यक्त्व के होने पर जीव के सत्यार्थ देव में अनन्य भक्तिभाव, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और विविध मिथ्याष्टियों (मतों) में असम्मोह प्रकट होता है। इसे क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए। जिस प्रकार पंकादि जनित कालुष्य के प्रशान्त होने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शनमोह के उदय के उपशान्त होने पर जो सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। दर्शनमोहनीय के उपशम से, कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान, पदार्थों का जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह उपशमसम्यग्दर्शन है। अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोह की तीन इन सात प्रकृतियों के उपशम से / औपशमिक सम्यक्त्व होता है। क्षायोपशमिकसम्यक्त्व - चार अनन्तानुबन्धी कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्था रुप उपशम से और देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। क्षायिकसम्यक्त्व - दर्शन मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रदान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मों के क्षय करने का कारण है। श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचनों से, तों से, इन्द्रियों को भय उत्पन्न करने वाले रूपों से तथा बीभत्स और जुगुप्सित पदार्थों से भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय वह त्रैलोक्य के द्वारा भी चल-विचल नहीं होता। क्षायिक सम्यक्त्व के प्रारम्भ होने पर अथवा प्राप्ति या निष्ठापन होने पर, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ देखकर भी विस्मय यां क्षोभ को प्राप्त नहीं होता। आप्त वचनों तथा तत्त्वों पर श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। जो जीव पदार्थों का श्रद्धान करता है वही नियम से सम्यग्दृष्टि है। .. सम्यक्त्व के पाँच लक्षण - 1. प्रशम - क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों को शमन अर्थात् उनके उदित होने पर शान्त करना। इसका नाम प्रशम है। 1. श्लोकवार्तिक, 3/1/3/11/82 2. प्राकृत पंचसंग्रह, 1/165-6. 3.धवला, 1/1/1, 144 गा. 216/396. 4.सर्वार्थसिद्धि, 2/3/152. .5. वही, 2/5/157. 6. प्राकृत पंचसंग्रह, 1/160-2. 46
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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