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________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 29 द्वार में अगीतार्थ के समीप अनशन ग्रहण का निषेध तथा उसके समीप, अनशन करने वाले का विस्तार से दोष-निरूपण एवं गीतार्थ के निकट 'उत्तमार्थ' की साधना से क्षपक को लाभ का विस्तार से निरूपण है / छठे ' असंविग्नद्वार' में असंविग्न के निकट, दोष-निरूपणपूर्वक, अनशन का निषेध, क्षेत्र और काल के अनुरूप मार्गणा निरूपण पूर्वक संविग्नमुनि के समीप उत्तमार्थकरण का निर्देश / सातवें द्वार में स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, वैयावृत्य, अनशन से असंख्य भव की कर्म-निर्जरा का निरूपण, आठवें द्वार में क्षपक के लिए धर्मध्यान बाधक स्थान का निर्देश, नवें वसतिद्वार' में क्षपक योग्य वसति का निरूपण, दसवें 'संस्तारकद्वार' में क्षपक योग्य संस्तारक के विषय में उत्सर्ग-अपवाद के गर्भ का वक्तव्य, ग्यारहवें 'द्रव्यवानद्वार' में क्षपक के अन्तिमकाल में आहार पानदान के विषय में निरूपण, बारहवें 'समाधिपानविरेकदद्वार' में क्षपक के समाधि के लिए मधुरपान, विरेचन द्रव्यनाम निर्देशपूर्वक दान का निरूपण,१° तेरहवें गणनिसर्गद्वार' में क्षपक के गच्छाचार्य होने पर उसके द्वारा योग्य गणाधिप की स्थापना, स्थापित गणाधिप और गण के प्रति क्षपकाचार्य का हृदयंगम वक्तव्य, क्षपकाचार्य और गण का परस्पर क्षमापन, चौदहवें 'चैत्यवन्दनद्वार' में अनशन के अभिलाषी मुनि द्वारा अनशन प्राप्त करने हेतु गुरु से अनुज्ञा, चैत्यवन्दन के निर्देश सहित गुरु द्वारा अनुज्ञा और क्षपक द्वारा चैत्य वन्दन, श्रावक के सन्दर्भ में अनशन ग्रहण का विस्तार से निरूपण है / 11 पन्द्रहवें 'आलोचनाद्वार' में संविग्न गीतार्थ गुरु के समक्ष आलोचना करने का निर्देश और अगीतार्थ के समक्ष आलोचना करने के दोष का निरूपण, आलोचना विधान का विस्तार से निरूपण, ज्ञानाचार अतिचार आलोचना, दर्शनाचारअतिचार आलोचना, चारित्राचारातिचारालोचना, तपाचारातिचारालोचना, वीर्याचारातिचारालोचना, श्रावकाश्रित आलोचना प्ररूपण, आलोचना विषय का विस्तृत निरूपण, शल्यपूर्वक आलोचना निषेध है / 12 सोलहवें 'व्रतोच्चारद्वार' में गुरु के समीप क्षपक में महाव्रत का आरोपण, क्षपक श्रावक के सन्दर्भ में गुरु के समीप अणुव्रत का आरोपण तथा सत्रहवें 'चतुःशरणद्वार' में क्षपक द्वारा चतुःशरण की प्रप्ति, अट्ठारहवें 'दुष्कृतगर्दाद्वार' में लोक-परलोक में किये गये विविध हिंसा कार्यों से समन्वित दुष्कृतों की क्षपणककृत विस्तृत निन्दा वर्णित है / 13 उनीसवें 'सुकृत अनुमोदनाद्वार' में अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, निर्ग्रन्थ, निर्ग्रन्थिनी, श्रावक-श्राविका, जिनभक्ति, तिर्यंच-नारक कृत आराधना, विविध जीवों के गुण, चारित्रपालन, आचार्यादि वैयावृत्य, स्वाध्याय, योग, उद्वहन, सामाचारी पालन, धर्मोपदेश, शास्त्र-अवगाहन, शिष्यपाठन, सिद्धान्तवाचना, अपूर्वशास्त्ररचना, पूर्वसूरिरचित ग्रन्थ व्याख्या, श्रावक-श्राविकाव्रतारोपादि, शिष्यनिष्पत्ति, आचार्य पदादिस्थापन, विविध * तपानुष्ठान, विविध संयममार्ग पालन, उन्मार्ग निवारण, सन्मार्गस्थापना आदि की क्षपकमुनि कृत अनुमोदना का प्रतिपादन है / इसके पश्चात् स्वकृत-कारित और अनुमोदित मिथ्यात्वत्याग, सम्यक्त्व प्राप्ति, तीर्थयात्रा, गुरुयात्रा, रथयात्रा, जिनचैत्यनिर्माण, जिनप्रतिमास्थापन, संघपूजा, मुनिप्रतिलाभ, साधर्मिक वात्सल्य, पुस्तक-पुस्तिका लेखनरूप, ज्ञानप्रपानिर्माण, नवजिनबिम्ब प्रवेश, त्रिकाल के तीर्थंकरों की पूजा, सद्गुरु-सेवा, प्रवज्या
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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