SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 25 के एक प्रयत्न से जीव दूसरे जन्म में भी दुःख और दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है / यह समाधिमरण अपूर्व चिन्तामणि, अपूर्व कल्पवृक्ष है / यह परम मन्त्र है और परम अमृत सदृश है / जघन्य आराधना में वह साधु सौधर्म देवलोक में महागति शाली देव होता है / उत्कृष्ट भक्तपरिज्ञा से गृहस्थ अच्युत देवलोक में देव उत्पन्न होता है / साधु आराधना से निर्वाण रूप सर्वार्थसिद्धि विमान प्राप्त करता है / 15 / (17) आराधनासार अथवा पर्यन्ताराधना इसमें कुल 263 गाथाएँ हैं / इसमें मंगलाचरण और अभिधेय के पश्चात् पर्यन्ताराधना के 24 द्वारों का नाम-निर्देश इस प्रकार है-(१) संलेखना (2) स्थान (3) विकटना (4) सम्यक् (5) अणुव्रत (6) गुणव्रत (7) पापस्थान (8) सागार (9) चतुःशरण गमन(१०) दुष्कृतगर्दा (11) सुकृतानुमोदन(१२) विषय (13) संघादि (14) चतुर्गति जीवक्षमणा (15) चैत्य-नमनोत्सर्ग (16) अनशन (17) अनुशिष्टि (18) भावना (19) कवच (20) नमस्कार (21) शुभध्यान (22) निदान (23) अतिचार और (24) फलद्वार / 2 प्रथम 'संलेखना' द्वार में संलेखना अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकार की है / अभ्यन्तर संलेखना कषायों की और बाह्य संलेखना, शरीर की होती है / शारीरिक संलेखना उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन प्रकार की होती है / काल की दृष्टि से यह संलेखना बारह दिन, बारह मास और बारह पक्ष की होती है / संलेखना के लिए कषाय रहित होना आवश्यक है। सकषाय का सारा प्रयास व्यर्थ है / 'स्थान' द्वार में ध्यान में बाधक गन्धर्व, नट, वेश्यास्थानादि को आराधक के लिए वर्जित बताया गया है / 'विकटना' द्वार में गीतार्थ गुरु के समीप भावपूर्वक आलोचना करने का निर्देश है / मूलगुण, उत्तरगुण, ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्र और वीर्याचार में राग-द्वेष वश जो भी अतिचार किये गये हों, आराधक द्वारा उनकी आलोचना करने का निर्देश है / चतुर्थ 'सम्यकद्धार' में शंका, कांक्षादि दोषों से रहित सम्यक्त्व प्राप्त होने की कामना की गई है तथा पंचम 'अणुव्रत' द्वार में यावज्जीवन पंच * 'अणुव्रतों का पालन करने का संकल्प है / 5 छठे एवं सातवें द्वार में क्रमशः गुणव्रतों एवं अठारह पाप स्थानों का नाम-निर्देश है / 6 आठवें 'सागार' द्वार में पापस्थानों एवं इष्ट आदि के त्याग का एवं नवें द्वार में अरहन्त, सिद्ध, साधु और संघ रूप चतुःशरण में जाने का निर्देश है / दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें द्वार में विस्तार से क्रमशः दुष्कृतगर्दा, सुकृत अनुमोदना, शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप विषय-त्याग, संघादि क्षमापना, चतुर्गति जीव क्षमापना का निरूपण है / पन्द्रहवें द्वार में चैत्य नमन पूर्वक कायोत्सर्ग करने, सोलहवें द्वार में गुरुवन्दन पूर्वक अनशन की प्रतिपत्ति, सत्रहवें द्वार में वेदना पीड़ित क्षपक के प्रति उपदेश, अठारहवें भावना द्वार में बारह भावनाओं के चिन्तन का उपदेश, उन्नीसवें द्वार में वेदना वश चंचलचित्त वाले आराधक के लिए गुरु द्वारा स्थिरीकरण का उपदेश, बीसवें द्वार में क्षपक का पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार, ध्यान और नमस्कार का माहात्म्य वर्णित है। इक्कीसवें द्वार में धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के विषय
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy