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________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 23 अपने द्रव्य को धर्मकार्यों के निमित्त व्यय करता है। सर्वविरति आराधक गृह से अनुराग तोड़कर और विषय वासनाओं से विरक्त हो संस्तारक प्रव्रज्या प्राप्त कर नियमपूर्वक निरवद्य सामायिकचारित्र और देशविरत सर्वप्रत्याख्यानकर गुरु के चरणों में यह निवेदन करे कि भगवन आपकी अनुमति से भक्तपरिज्ञा प्राप्त करता हूँ / 6 इसके पश्चात् वह दोषों की प्रतिलेखना करता है, भव के अन्त तक त्रिविधआहार का प्रत्याख्यान करता है / इसके पश्चात् द्रव्यों में उसकी आसक्ति की परीक्षा का उल्लेख है / क्षपक को सुख से समाधि प्राप्त हो सके इसके लिए लौकिक पथ्यों जैसे विरेचक, एला, छाल या दालचीनी, नागकेशर एवं तमालपत्र को शक्कर और दुग्ध के साथ पिलाकर, उसके पश्तात् उबला हुआ शीतल समाधि पान कराना चाहिए / पूग आदि फलों से इसका मधुर विरेचन करना चाहिए / अन्तराग्नि को शीतल कर देने पर समाधि सुख से होती है।' संघ द्वारा क्षपक को चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान अथवा सागार को त्रिविध आहार का परित्याग कराया जाता है, फिर कालक्रम में वह पानक आहार का भी त्याग करता है / इसके पश्चात् वह विधिपूर्वक सर्वसंघ, आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गण से क्षमापना करता है / वह कहता है-मैं सभी के अपराधों को क्षमा करता हूँ सभी मुक्षे क्षमा करें। इसप्रकार क्षमापना और गर्दा करते हुए वह राजपत्नी मृगावती की भाँति सैकड़ों भवों में अर्जित कर्मों का क्षणभर में क्षय करता है / इसके पश्चात् गणि द्वारा आराधक को विस्तृत उपदेश देने का विवरण है / गणि कहता है हे वत्स ! मिथ्यात्व का समूल उच्छेदन करो, सूत्रानुसार परमतत्त्व सम्यक्त्व का चिन्तन करो, तीव्र अनुराग से वीतरागों की भक्ति करो, सुविहित हित का चिन्तन करते हुए सदा स्वाध्याय में उद्यत रहो, नित्य पंचमहाव्रतों की रक्षा द्वारा आत्म-प्रत्यक्ष करो, निदान, शल्य, महामोह का त्याग करो, संसार के मूल बीज मिथ्यात्व का सबप्रकार से त्याग करो, सम्यक्त्व में दृढ़चित्त वाले होओ / मिथ्यात्व अग्नि, विष और कृष्णसर्प से भी अधिक महादोष उत्पन्न करने वाला है / मिथ्यात्व से मोहित चित्तवाला सदैव तुरुमिणी दत्त के समान दारुण दुःख पाता है / जिनशासन में भावानुरागी, सुगुणानुरागी और धर्मानुरागी बनो / दर्शन भ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है, चारित्रभ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है / जो सम्यक् दर्शन प्राप्त कर लेता है उसका संसार में भ्रमण नहीं है / दर्शन भ्रष्ट का निर्वाण नहीं है / चारित्र रहित सिद्ध होते हैं जबकि दर्शन रहित सिद्ध नहीं होते हैं / शुद्ध समयक्त्वी होने पर अविरती भी तीर्थंकर नाम प्राप्त करते हैं / त्रैलोक्य का प्रभुत्व प्राप्त कर के भी लोग समय आने पर दुखी होते हैं, परन्तु सम्यक्त्व प्राप्त होने पर कभी न नष्ट होनेवाला मोक्ष सुख प्राप्त होता है ! त्रिकरण शुद्ध भाव से अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, आचार्य और साधुओं में भक्ति करो / एक जिनभक्ति भी दुर्गति निवारण में समर्थ है। भक्ति से युक्त विद्या ही सिद्धि लाती है और फल देने वाली होती है तो क्या निर्वाण विद्या भक्ति से रहित होने पर सिद्ध होगी ? आराधना नायकों की जो भक्ति नहीं करता है वह ऊसर में धान बोता है / भक्ति रहित आराधना वाला बिना बीज के फल की इच्छा करता है और बादल के बिना वर्षा की आकांक्षा करता है / उत्तम कुल और सुख की प्राप्ति हेतु जिनभक्ति अपेक्षित है।१०
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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