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________________ 20 : डॉ० अशोक कुमार सिंह (14) संस्तारक प्रकीर्णक इस प्रकीर्णक में संस्तारक सम्बन्धी विवरण है / संस्तारक से तात्पर्य है अन्तिम आराधना के प्रसङ्ग में स्वीकार किया जाने वाला दर्भादि आसन / इस प्रकीर्णक की कुल गाथायें 122 हैं / प्रकीर्णक के आरम्भ में जिन ऋषभ और वर्धमान को नमस्कार कर संस्तारक में निबद्ध गुणों को सुनने का निर्देश है / इसके पश्चात् उपमा द्वारा संस्तारक की उत्कृष्टता बतायी गयी है / संस्तारक को पुरुषों में जिन की तरह, महिलाओं में जिनमाता, वंशों में जिनवंश, गतियों में सिद्भगति, सभी सुखों में मोक्षसुख, धर्मों में अहिंसा, श्रुतियों में जिनवचन, ध्यानों में परमशुक्ल, ज्ञानों में केवल ज्ञान, सर्वोतम तीर्थों में तीर्थंकर तीर्थ की भाँति बताया गया है / संस्तारक को श्वेतकमल, कलश, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, वरमाल्य, से भी अधिक मंगल बताया गया है / जो संस्तारक प्राप्त कर लेता है, वह सर्वजीवलोक में उत्कृष्ट तीर्थ प्राप्त कर लेता है / संस्तारक को पर्वतों में मेरु की तरह, तारकों में चन्द्र की तरह बताया गया है / तदनन्तर संस्तारक के स्वरूप-वर्णन के क्रम में सुविशुद्ध और अविशुद्ध संस्तारक का वर्णन संस्तारक ग्रहण करने वाले की मनोवृत्ति के सन्दर्भ में किया गया है, जैसे जो गौरव से युक्त गुरु के समीप आलोचना नहीं करना चाहता है, तथा जो मलिन दर्शन और शिथिल चारित्रवाला श्रमण है वह जिस संस्तारक को ग्रहण करे, वह अविशुद्ध है तथा जो योग्य गुरु के समीप आलोचना करता है उसके द्वारा ग्रहण किया गया संस्तारक सुविशुद्ध संस्तारक है। संस्तारक प्राप्त करने वाले को लाभ बताते हुए कहा गया है कि संस्तारक के प्रथम दिवस ही संख्येय भवों की कर्मस्थिति नष्ट हो जाती है / नष्ट राग-मंद-मोह साधु तृण संस्तारक पर बैठा हुआ भी जो मुक्तिसुख प्राप्त करता है, वह चक्रवर्ती को भी सुलभ नहीं है / गाथा 56 से दृष्टान्त के रूप में प्रदत्त संस्तारक ग्रहण करने वाली पुण्यात्माओं के नाम इस प्रकार हैं- अर्णिकापुत्र, खन्दकमुनि के 500 शिष्य, दण्डमुनि, सुकोशल मुनि, अवंतीसुकुमाल, कार्तिकार्य, धर्मसिंह चाणक्य, अभयघोष, ललितघटा, सिंहसेन मुनि, चिलातिपुत्र, गजसुकुमाल और भगवान महावीर के वे शिष्य जो गोशालक द्वारा फेंकी गई तेजोलेश्या से जल गये थे। अन्त में गाथा 88 से 122 में संस्तारक ग्रहण करने की क्षमापना और भावना का निरूपण है। (15) महाप्रत्याख्यान' आगमिक व्याख्याकारों के अनुसार जो स्थविरकल्पी जीवन की सान्ध्यवेला में विहार करने में असमर्थ होते हैं, उनके द्वारा जो अनशन व्रत (समाधिमरण) स्वीकार किया जाता है, उन सबका जिसमें विस्तृत वर्णन हो उसे महाप्रत्याख्यान कहते हैं / महाप्रत्याख्यान का शाब्दिक अर्थ है-महा अर्थात् सबसे बड़ा और प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग, और यह शरीर-त्याग के अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं हो सकता है / महाप्रत्याख्यान में कुल 142 गाथाएँ हैं / आरम्भ में तीर्थंकरादि की वन्दना, जिनप्रज्ञप्त वचनों पर श्रद्धा तथा पापकर्म का प्रत्याख्यान करते हुए दुश्चरितों की निन्दा, निरपवाद
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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