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________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 19 (6) नमोक्कार भावना का नाम निर्देश है / आलोचना द्वार में विविध तपों से सूखे हुए अथवा रोगों को दूर करने के हेतु उपक्रम के अभाव में क्षीण शरीर होने एवं मृत्यु आसन होने पर मृत्यु भय की चिन्ता न कर शल्य मरण के गुण-दोषों का विचार करना चाहिए / शल्य-मरण से संसार रूपी अटवी में जीव भ्रमण करता रहता है / भयानक सर्प, विष, शस्त्र आदि से भाव शल्य अधिक दारुण है इसलिए गौरव-भावना से रहित हो, पुनर्भव के मूलमिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और निदानशल्य को दूर करना चाहिए / सब शल्यों को दूर कर सम्यक् आराधना करने वाला तीसरे भव में निर्वाण प्राप्त करता है / गुरु के समक्ष बालक सदृश सरलता से बिना कुछ छिपाये आलोचना करनी चाहिए / जो कुछ भी अकार्य किया है उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए, उसे हृदय में धारण नहीं करना चाहिए / पाँच प्रकार के ज्ञान, आठ प्रकार के दर्शनाचार और जिन, सिद्ध, आचार्य, वाचक, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, चैत्य आदि के सम्बन्ध में हुई आशातना की आलोचना करनी चाहिए। समिति, गुप्ति रूप अथवा मूलगुण, उत्तरगुण रूप चारित्र की जो विराधना हुई उसकी आलोचना करनी चाहिए / विधिपूर्वक यदि वीर्य में प्रवृत्त न हुआ हो तो उसकी भी सम्यक आलोचना करनी चाहिए / द्वितीय व्रतोच्चार द्वार में प्रतिपादित है कि सुगुरु के समीप शल्यों को दूर कर साधु महाव्रतों का भावपूर्वक उच्चारण करता है कि वह प्राणातिपात, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा परित्याग करता है। सभी कषायों, और मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग कर श्रद्धापूर्वक साधु संस्तारक के लिए गमन करें / जो श्रावक महाव्रतों का भावपूर्वक उपचार न सकें वे स्थूल प्राणातिपात का भावपूर्वक उपचार करें।६ * तृतीय क्षमापणा द्वार में आराधक चतुर्विध संघ एवं संसार में जिसके प्रति भी मोहवश अपराध किया है उससे क्षमापणा करता है / इस द्वार में सभी प्रकार के जीवों से क्षमापणा की गई है। इसमें आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण, स्वजन, परजन, उपकारकर्ता, अनुपकारकर्ता, मित्र, अमित्र, दृष्ट, अदृष्ट, जिनसे वार्तालाप हुआ, जिनसे नहीं हुआ, परिचित, अपरिचित, अनुपकृत, उपकृत, मनुष्य, देव, तिर्यक, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय, जलचर, थलचर, नभचर सारे जीवों को इस भव में, अन्य भवों में यदि किसी प्रकार प्रताड़ित किया हो, उपहास किया हो अथवा दुर्वचन बोला हो, वे सभी हमें क्षमा करें और मैं भी उनके अपराध को क्षमा करता हूँ - ऐसा कथन है / चतुर्थ अनशन द्वार में सर्व प्रकार का आहार त्यागकर अनशन करने का निरूपण है। पंचम शुभभावना द्वार में एकत्व आदि बारह भावनाओं का चिन्तन करने का निर्देश है / आराधक द्वारा राग-द्वेष से मुक्त होकर इन भावनाओं का चिन्तन करने का प्रतिपादन है। उल्लेखनीय है कि इसमें कुन्दकुन्द की प्रसिद्ध गाथा एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसण संजुओ / सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा' भी अन्यत्व भावना के प्रतिपादन में उद्धृत है / 10 षष्ठम द्वार 'नमोक्कार भावना' में पञ्च परमेष्ठियों की वन्दना करते हुए नमोक्कार मन्त्र का माहात्म्य बताया गया है / 11
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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