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________________ चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में प्रतिपादित विनयगुण : 181 दशाश्रुतस्कन्ध में गुरु अपने शिष्य को चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति सिखाकर अपने ऋण से उऋण होता हुआ कहता है-“हे शिष्य ! विनय चार प्रकार का है- 1. आचार विनय, 2. श्रुत विनय, 3. विक्षेपणा विनय और 4. दोष निर्घातना विनय / "4 पुनः ये सभी विनय चार-चार प्रकार के कहे गये हैं / दशाश्रुतस्कन्ध में इसका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है / स्थानांगसूत्र में विनय सात प्रकार का कहा गया है-''सत्तविहे विणए पण्णत्ते, तंजहा-णाण विणए, दंसण विणए, चरित्त विणए, मण विणए, वइ विणए, काय विणए, लोगोवयार विणए य / "6 अर्थात ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, मनोविनय, वाक् विनय, काय विनय और लोकोपचार विनय / . चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में विनय का महत्त्व __चन्द्रवेध्यक-प्रकीर्णक में विनय के स्वरूप एवं भेदाभेद का विवेचन करने के पश्चात् विनय के महत्त्व का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है / ग्रन्थ में सात द्वारों के माध्यम से सात गुणों की चर्चा की गई है / इसमें प्रथम द्वार विनय गुण ही है / ग्रन्थ में कहा गया है कि जो विनय है, वही ज्ञान है और जो ज्ञान है वही विनय कहा जाता है / विनय से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से विनय को जाना जाता है। विनय का महत्त्व बताते हुए कहा है कि मनुष्य के सम्पूर्ण सदाचार का सारतत्त्व विनय में प्रतिष्ठित होना है / विनय रहित तो निर्ग्रन्थ साधु भी प्रशंसित नहीं होते हैं / यदि कोई निग्रन्थी है और उसमें विनय नहीं है तो वह प्रशंसा का पात्र नहीं है / आगे यह भी कहा गया है कि अल्प श्रुतज्ञान से सन्तुष्ट होकर जो व्यक्ति विनय और पाँच महाव्रतों से युक्त है, वह जितेन्द्रिय है, आराधक है / इस बात को उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हुए ग्रन्थ में कहा है-जिस प्रकार लाखों-करोड़ों जलते हुए दीपक भी अन्धे व्यक्ति के लिए निरर्थक हैं उसीप्रकार विनय रहित व्यक्ति का बहुत अधिक शास्त्रज्ञ होने का क्या प्रयोजन?'८ तात्पर्य यही है कि विनय रहित व्यक्ति का शास्त्रज्ञानी होना भी निरर्थक है / विनय का अर्थ चारित्र लेते हुए उसका महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है"(सम्यक्) दर्शन से रहित व्यक्ति को सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यक् ज्ञान से रहित व्यक्ति को क्रिया गुण (सम्यक् चारित्र) नहीं होता है / (सम्यक्) चारित्र से रहित व्यक्ति का निर्वाण (मोक्ष) नहीं होता है / चारित्र शुद्धि के महत्त्व को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है-"जिसप्रकार निपुण वैद्य शास्त्रज्ञान के द्वारा रोग के उपचार को जानता है उसी प्रकार ज्ञानी आगम ज्ञान के द्वारा चारित्र की शुद्धि को जानता है / "10 . उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि चारित्रशुद्धि, कषायों का शमन आदि विनय से ही संभव हैं / विनय वास्तव में एक ऐसा तप है जो समस्त विकृतियों को जलाकर व्यक्ति को मोक्ष की ओर अग्रसर कराता है इसलिए चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक के चतुर्थ द्वार विनयनिग्रह गुण में कहा गया है-"विनय मोक्ष का द्वार है, इसलिए कभी भी विनय को नहीं छोड़ें / निश्चय ही शास्त्रों को थोड़ा जानने वाला पुरूष भी यदि विनय सम्पत्र है
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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