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________________ से लेकर आज तक जैनों की दानशीलता की महिमा से इतिहास भरा पड़ा है। राष्ट्र पर आये किसी भी प्रकार के संकट के समय जैनों ने अपनी मुक्त दानशीलता का परिचय दिया है। केवल धन का विसर्जन ही नहीं, कर्तव्य के अनेक मोचों पर उन्होंने अपनी निष्ठापूर्ण सक्रिय सहभागिता निभाई है। व्यसन-मुक्ति और सम्पन्नता जैन आगम स्थानांग सूत्र में वर्णित दस प्रकार के धर्म नागरिकों के लिए ग्राम/नगर से लेकर राष्ट्र और मानवता के प्रति कर्तव्यों का निर्देश करते हैं। आचार्यों ने गृहस्थाचार का समय-समय पर बहुत विकास किया, उसे नये आयाम दिये और युगानुकूल बनाने के प्रयास किये। इस क्रम में सात कुव्यसनों का त्याग बहुत महत्वपूर्ण है। जीवन के सुख और सौभाग्य को बचाने के लिए व्यसन-मुक्ति परमावश्यक है। जैनों की सम्पन्नता की एक बड़ी वजह उनका व्यसन-मुक्त होना है। एक व्यक्ति दिन के सौ रुपये कमाता है और उन्हें शराब आदि व्यसनों में उड़ा देता है। दूसरा केवल पिचहत्तर रुपये कमाता है, जिनमें से पचास रुपये से अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करता है और पच्चीस रुपये की बचत करता है। पहला व्यक्ति अधिक कमाने के बावजूद व्यसनों के कारण स्वयं और परिवार को दरिद्रता के गर्त में धकेल देता है, जबकि दूसरा व्यक्ति कम कमाने के बावजूद निरन्तर समर्थ और सम्पन्न होता रहता है। जो लोग सम्पन्न व्यक्तियों पर शोषण का आरोप लगाते हैं, उन्हें उनकी जीवन-शैली का अध्ययन भी करना चाहिये। गृहस्थाचार के विकास में आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत मार्गानुसारी के 35 गुण एक नैतिक-आर्थिक मनुष्य के लिए अनेक उपयोगी तथ्य प्रस्तुत करते हैं। सिद्धान्त और दर्शन का आर्थिक पक्ष शोध प्रबन्ध के पाँचवें अध्याय में भगवान महावीर के सिद्धान्त और * दर्शन का अर्थशास्त्र के साथ सह-सम्बन्ध का अध्ययन किया गया है। किसी भी व्यवस्था के पीछे कोई न कोई सिद्धान्त, दर्शन या मान्यता काम करती है। जैनाचार, जैन जीवन शैली या आगमों से निर्देशित जीवन शैली के पीछे भगवान महावीर के - सिद्धान्त और दर्शन की सुदृढ़ भूमिका है। व्यक्तित्व विकास में सम्यक् दर्शन पहली भूमिका है। दर्शन के सम्यक् होने पर ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् बन जाते * हैं। जीव और अजीव के स्वरूप का परिज्ञान सम्यक्त्व की भूमिका पर होता है। यह : ज्ञान ही अहिंसा का आधार बनता है। जो व्यक्ति जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव (371)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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