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________________ में समता का विकास है और अपरिग्रह में समता का संघटक-संस्थान है। गरीबी में इच्छाओं और अनावश्यक इच्छाओं की व्यथा है और अमीरी में अतृप्ति का दुःख है। सन्तुष्टि और वृत्ति-सन्तुलन त्याग पर निर्भर है। अणुव्रत मानव को भीतर से तृप्त करते हैं। वे समाज और देश में उच्चतर नैतिक मूल्यों के द्वारा समृद्धि, संतुष्टि और समता के आर्थिक-चरित्र की स्थापना करते हैं। अणुव्रतों के माध्यम से भगवान महावीर मानव को धार्मिक बनाने से पहले नैतिक बनाते हैं। गुणव्रत और संयम गुणव्रत मनुष्य और समाज की गुणवत्ता को बहुगुणित करते हैं। इनकी स्थापना से पूर्व भगवान महावीर रात्रि भोजन निषेध का महत्वपूर्ण व्रत समाज को देते हैं। जो स्वास्थ्य और संयम का महत्वपूर्ण आधार है। दिशा-परिमाण में साम्राज्यवाद का निषेध है और आत्म-निर्भरता की प्रेरणा है। उपभोग परिभोग परिमाण 'संयमः खलु जीवनम्' की आचार संहिता प्रदान करता है। अर्थशास्त्र की भाषा में यह व्रत उपभोक्ता की सीमान्त, सम-सीमान्त उपयोगिता और उपभोक्ता की बचत में वृद्धि करता है। वर्जित व्यवसाय के अन्तर्गत पन्द्रह कर्मादान अर्थोपार्जन में साधन-शुद्धि की सीख देते हैं। एक सद्गृहस्थ को ऐसा धन्धा नहीं करना चाहिये, जो हिंसक हो, तथा समाज, मानवीयता और पर्यावरण की दृष्टि से अनुपयुक्त हो। अपव्यय और अनुत्पादक व्यय वर्तमान जीवन शैली का बड़ा अभिशाप है। यह व्यक्तिगत, सामूहिक, राजकीय और व्यावसायिक सभी स्तरों पर विभिन्न रूपों में हो रहा है। अनर्थदण्ड विरमण व्रत सभी प्रकार के अपव्ययों पर अंकुश लगाता है। शिक्षा व्रत और संविभाग शिक्षा व्रत मानव को योग्य बनाते हैं। तनाव-मुक्ति के प्रबन्धन में इन व्रतों की महत्ता है। अतिथि संविभाग व्रत सेवा और सामाजिक समता का बड़ा आधार है। जैनों ने अपने जीवन में इस व्रत का बहुत विस्तार किया है। दान इसी का एक रूप है, जिसे श्रावक का आवश्यक कर्तव्य बताया गया है। दान दीनता या एहसान करने की क्रिया नहीं है, अपितु त्याग, सहयोग, अनासक्ति और स्वत्वविसर्जन की साधना है। करारोपण दान का राजकीय रूप है। आनुपातिक दृष्टि से देखा जाय तो देश में जैन समाज सर्वाधिक कर देने वाला समाज है। सेवा, साधना, शिक्षा, चिकित्सा जैसे पारमार्थिक कार्यों में भी जैन समाज अग्रणी है। आगम युग (370)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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