SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लकड़ी की स्वतन्त्र रूप से अनेक चीजें बनती थी। गृह-निर्माण में लकड़ी, लोहा, पत्थर और अन्य अनेक वस्तुएँ काम में आती थीं। ग्रन्थों में बड़े-बड़े भव्य भवनों और बहुमंजिले प्रासादों का वर्णन उत्तम गृह निर्माण विद्या का प्रमाण है। इन भवनों की बाहरी और भीतरी सज्जा के लिए अनेक वस्तुएँ काम आती थी और उनके भी व्यवसाय थे। जैसे मकानों की दीवारों पर चित्र बनाये जाते थे, इससे चित्रव्यवसाय होने की सूचना मिलती है। शिविकाओं, वाहनों और अन्य स्थानों पर भी चित्र बनाये जाते थे। मकानों के शिखरों, झरोखों, रथों, सिंहासनों आदि को मणिरत्नों से जड़ा जाता था। अनेक व्यवसाय एक दूसरे व्यवसाय से जुड़े हुए थे। स्वर्णरजत व्यवसाय और रत्न-व्यवसाय भी एक दूसरे से जुड़े हुए थे। रत्नों का खूब व्यापार होता था। विदेशी भी यहाँ रत्न खरीदने आते थे। राजाओं और सेठों के भण्डार सोने चाँदी और रत्नों से भरे हुए होते थे। स्वर्ण-रजत और रत्नों की हर देश और काल में परिवर्तनीयता तथा उपयोगिता रहती है, इसलिए बचत और संग्रह के रूप में इनका उपयोग किया जाता था। - गुड़, शक्कर, तेल, दवाइयाँ, प्रसाधन, नमक, चर्म आदि अनेक प्रकार के उद्योग-धन्धे आगम युग में विद्यमान थे। प्रज्ञापना-सूत्र में अहिंसक और अल्पआरम्भ वाले शिल्प और व्यवसायों को आर्य (उत्तम और अनिन्दित) माना है। व्यापार और व्यापार-केन्द्र जैन आगमों से ज्ञात होता है कि सभी स्तरों पर और सभी क्षेत्रों में व्यापार, व्यवसाय और वाणिज्य फैला हुआ था। स्थानीय व्यापार करने वाले छोटे व्यापारी वणिक कहलाते थे और बड़े व्यवसायियों को गाथापति कहा गया है। आनन्द श्रावक भी गाथापति था। धन-सम्पन्न व्यापारी को इब्भ कहा गया है। व्यापारिक काफिले को सार्थ कहा जाता था। सार्थवाह सार्थ का संचालक होता था। वह उस समय का बहुत महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित व्यक्ति होता था। जो संयुक्त विदेशी व्यापार में पराक्रम करने वाला होता था। विदेशी व्यापार के कारण वह एक नहीं, अनेक देशों की अर्थव्यवस्था के उत्थान में योगदान करता था। लोगों के व्यापार में प्रत्यक्ष रूप से सहायक बनता था। राज्य और समाज में उसका बहुत मान-सम्मान होता था। ग्रन्थों में तीर्थंकर महावीर को महासार्थवाह की उपमा दी गई है। सार्थवाह के योगदान और महत्व का अनुमान इससे लगाया जा सकता है। महिलाओं के द्वारा व्यवसाय करने की सूचनाएँ मिलती है। व्यापारियों के संगठन भी होते थे। अनेक (368)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy