SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्पष्ट निषेध है। आगमों में अठारह प्रकार के करों का वर्णन हैं। वे मुख्यतः कृषि से सम्बन्धित थे और गाँवों में लगाये जाते थे। इससे खेती-बाड़ी और गाँवों की विकसित अवस्था का पता चलता है। क्योंकि जहाँ आय है, सामर्थ्य है, वहीं करारोपण किया जाता है। कृषि के अलावा उद्यानिकी (बागवानी) का व्यवसाय भी था। फूल और इत्र इससे प्राप्त होते थे। उत्सवों के समय पुष्प और पुष्पहार के उपयोग के उदाहरण मिलते हैं। वर्धमान महावीर दीक्षा के समय जिस शिविका में आरूढ़ होकर महाभिनिष्क्रमण करते हैं, उसमें पुष्प-सज्जा भी की गई थी। व्यवसाय के लिए उपयोगी वृक्ष भी उगाये जाते थे। वनों में सहज उगे वृक्षों से लकड़ी, फल, फूल, पत्ते, जड़ी-बूंटियाँ, गोंद आदि अनेक वनोत्पाद लोगों की जीविका के आधार थे। श्रावक को निर्देश दिया गया है कि वह वनों को नुकसान पहुँचाने वाले धन्धे नहीं करें। खनन व्यवसाय भी प्राथमिक उद्योग के रूप में स्थापित था। उससे साधारण और मूल्यवान पत्थर, रत्न-मणियाँ, विभिन्न प्रकार की धातुएँ आदि प्राप्त होते थे। इन सब चीजों का व्यवसाय होता था। द्वितीयक उद्योग ( Secondary Industries) द्वितीयक उद्योग के अन्तर्गत प्राथमिक उद्योगों पर आधारित उद्योगों को परिगणित किया जाता है। पुरुषों की बहत्तर और महिलाओं की चौंसठ कलाओं के अन्तर्गत अनेक ऐसी कलाएँ और शिल्प-विद्याएँ हैं, जो प्राथमिक उद्योगों पर अवलम्बित थीं। ये कलाएँ तत्कालीन शिक्षा-पद्धति की बहुआयामिता और उपयोगिता के साथ-साथ व्यापार-वाणिज्य के बहुआयामी विकास का प्रमाण भी है। लगभग सभी प्रकार के उद्योग-धन्धों की सूचना किसी न किसी रूप में आगम-साहित्य में मिलती है। वस्त्र उद्योग उन्नत अवस्था में था। अनेक प्रकार और कीमतं के वस्त्रों का उत्पादन होता था। वस्त्रों पर कशीदाकारी होती थी और उन्हें रंगा भी जाता था। महाभिनिष्क्रमण के समय वर्धमान महावीर को अल्प भार का एक लाख सुवर्ण मुद्राओं के मूल्य का वस्त्र धारण करवाया गया। __धातु उद्योग के अन्तर्गत लौह-उद्योग था। यह उद्योग कृषि उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, गाड़ियाँ तथा जीवन व्यवहार में काम आने वाली अनेक वस्तुओं की पूर्ति करता था। कितनी ही चीजें अनेक उत्पादों से मिलकर बनती हैं। लौह उद्योग के साथ काष्ठ उद्योग का महत्व था और वास्तु उद्योग का भी। लोहे की तरह (367)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy