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________________ अहिंसा का विवेक, आश्रम से प्रतिध्वनित होता है। शिवार्य अहिंसा को सभी शास्त्रों का उत्पत्ति-स्थान भी मानते हैं, निश्चित ही उसमें अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र भी समाविष्ट है। आगमकारों ने प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा के साठ नाम देकर उसकी व्यापकता और महिमा को कई गुना बढ़ा दिया। अहिंसा का प्रत्येक नाम (रूप) जीव, जीवन और जगत् के मंगल का हेतु है। कुछ नाम अर्थशास्त्रीय दृष्टि से काफी मूल्यवान हैं। जैसे - व्यवसाय (44वाँ नाम), समृद्धि (19वाँ नाम), ऋद्धि, वृद्धि, विश्वास, शान्ति (विश्व-शान्ति), तृप्ति, बुद्धि, धृति, पुष्टि, उत्सव, अप्रमाद आदि। अहिंसा हमारे आसपास सदैव विद्यमान रहती है। आवश्यकता है उसके एहसास और समादर की। अहिंसा का जितना एहसास और समादर किया जायेगा, उसका विकास होगा। अहिंसा का विकास व्यवस्थाओं के विकास से जुड़ा है। अहिंसा के अर्थशास्त्र में संयम और किफायत का शीर्षस्थ स्थान है। जबकि हिंसा की जमीन पर खड़े अर्थशास्त्र में तृष्णा, संग्रह और असंयम को भरपूर छूट है। शाकाहार और अर्थतन्त्र शाकाहार मानव सभ्यता और संस्कृति का अरुणोदय है तो अर्थशास्त्र का उषा-काल है। ऋषभदेव ने जनता को कृषि सम्बन्धी ज्ञान देकर शाकाहारिता को व्यवस्थित रूप से स्थापित किया। 22वें तीर्थंकर भगवान नेमीनाथ, जिन्हें कुछ विद्वानों द्वारा ऐतिहासिक तीर्थंकर माना जाने लगा है', अपने विवाह के अवसर पर समस्त प्रजाजनों के समक्ष पशु-वध और मांसाहार का विरोध करते हैं और विद्रोहस्वरूप वे बिना विवाह किये लौट जाते हैं। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ कर्मकाण्डी हिंसा.को नाजायज ठहरा कर अहिंसा व समतामय समाज की स्थापना करते हैं। 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर मांसाहार और पशु-वध को नरक का कारण बताते हैं। सचमुच, मांसाहार और पशु-वध की वजह से धरती पर नारकीय स्थितियाँ बढ़ती जा रही हैं। आगम सूत्रों से प्रवर्तित और समर्थित शाकाहार के कितने अर्थशास्त्रीय आयाम हमारे समक्ष हैं, उनकी चर्चा हम यहाँ कर रहे हैं। अनेक वैज्ञानिक शोधों और प्रयोगों से अब यह दिन की रोशनी की तरह स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य मूलतः शाकाहारी प्राणी है। जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के नृतत्त्वशास्त्री डॉ. आलन वाकर का कथन है कि मानव के पूर्वज मांसभक्षी नहीं थे। वे सर्वभक्षी भी नहीं थे। वे फलाहारी/शाकाहारी थे। उन्होंने मनुष्य की दन्त (282)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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