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________________ बनता है और चलता है। सर्वांगीण विकास के लिए भी यह सहज रूप से आवश्यक बात है। पुरुषार्थ के बल पर सभी प्रकार की उन्नतियों के लिए सबको सदैव समान अवसर प्राप्त है। इस सिद्धान्त को समझ कर जीवन ढालने वालों ने शून्य से शिखर तक की यात्रा की है। दूसरों के विकास में बाधा बने बगैर अपना विकास कर्मवाद का मुख्य बिन्दु है। बल्कि, स्व-उत्कर्ष के साथ-साथ पर-उत्कर्ष और सर्वउत्कर्ष इस सिद्धान्त में गर्भित है। भाग्यवाद बनाम पुरुषार्थवाद पुनर्जन्म के सिद्धान्त का सामाजिक जीवन पर विपरीत असर भाग्यवादिता के कारण हुआ। भाग्यवादिता से अकर्मण्यता और अकर्मण्यता से गरीबी व आर्थिक अवनति की स्थितियाँ पैदा होती गई। जैन कर्म-सिद्धान्त में शुभाशुभ कर्मों का शुभाशुभ फल बताया गया है। यह न्यायपूर्ण भी है। परन्तु उसने भाग्यवाद का समर्थन नहीं किया। इसके समर्थन में महत्वपूर्ण बात यह है कि जैन दर्शन शुभाशुभ फल को कर्मजनित और कार्मण-वर्गणाओं की शक्ति के अनुसार मानता है। यह सब गणित और भौतिकी के नियमों की भाँति सम्पन्न होता है। इस कार्य में किसी ईश्वर या ईश्वरीय शक्ति के हस्तक्षेप का प्रश्न ही नहीं उठता।" जब अपने भाग्य की बागडोर ईश्वर या किसी दैवीय शक्ति को सौंप दी जाती है, तो समाज में जड़ता स्वाभाविक है। जैन धर्म ने कर्मफल और जीवन-विकास में ईश्वरीय हस्तक्षेप का केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से ही प्रतिवाद नहीं किया, अपित व्यवहार क्षेत्र में भी उससे असहमति रखी। उसकी अच्छी परिणति जैन धर्मानुयायियों की सम्पन्नता में हुई। समाज में कोरी भाग्यवादिता के खिलाफ स्वर बुलन्द हुए और यह कहा जाने लगा कि ईश्वर भी फल उसी को देता है जो पुरुषार्थ करता है। यह जैन धर्म के पुरुषार्थवाद की जीत है। कर्मवाद पुरुषार्थवाद का ही दूसरा नाम है भाग्य कोई आकाश से नहीं टपकता है। जिसे आज सौभाग्य कहा जा रहा है, वह पूर्व में किये गये सत्पुरुषार्थ की निष्पत्ति है। इसलिए, सम्यक् पुरुषार्थ कभी नहीं छोड़ना चाहिये। पुरुषार्थ फलदायी होता है। जिसके पुरुषार्थ की ज्योति मन्द हो जाती है, उसके पूर्वकृत अच्छे कर्मों का फल भी मन्द हो जाता है। जो सतत् पुरुषार्थशील है, उसके बुरे कर्मों का फल मन्द हो जाता है। कर्म सिद्धान्त में बताया गया है कि अप्रमत्त साधक अपने अशुभ कर्मों के फल को उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण, उपशमन और उदीरणा (258)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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