SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दृष्टि प्रदान करता है। अर्थशास्त्र के अध्ययन की निगमन और आगमन प्रणाली पर अर्थशास्त्री जे.एम.केंज की टिप्पणी अनेकान्तिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है - 'वास्तविकता तो यह है कि आर्थिक विज्ञान के पूर्ण विकास के लिए दोनों विधियों का सम्मिश्रण अनिवार्य है।" अनेकान्त की महत्ता और उपयोगिता सर्वत्र समझी जाने लगी है। वैचारिक सहिष्णुता __ स्याद्वाद ने स्वतन्त्र वैचारिकता और वैचारिक स्वतन्त्रता का समादर करने और विश्व में वैचारिक सहिष्णुता को बढ़ाने में महान योगदान किया है। सूत्रकृतांग सूत्र में अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निन्दा को अनुचित बताते हुए कहा गया कि ऐसा करने से सत्य का निर्णय नहीं हो पाता है। मानव सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के विकास में अनेकान्त-दर्शन का अभूतपूर्व योगदान है। अनेकान्त से समाज में होने वाले विभिन्न प्रकार के झगड़ों का शमन होता है। पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को समरस बनाने में अनेकान्त की भूमिका असंदिग्ध है। विश्व राजनीति में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अनेकान्त की महत्ता उजागर करता है। जैन मनीषियों ने अनेकान्त पर विस्तृत चिन्तन-मनन किया है और विपुल साहित्य की रचना की है। जैसे लिखते समय कागज पर हाशिया छोड़ा जाता है, ताकि उस पर टिप्पणी लिखने की गुंजाइश रहे। उसी प्रकार अनेकान्त दृष्टि में सामने वाले व्यक्ति की अभिव्यक्ति के लिए स्थान होता है।" अनेकान्त ने धार्मिक सहिष्णुता, राजनैतिक सहिष्णुता आदि में अपना योगदान किया है। सह-अस्तित्व, समता, समन्वय, सन्तुलन और स्वतन्त्रता के विकास में अनेकान्त का अनुपम योगदान है। धार्मिक असहिष्णुता से संसार ने अनेक युद्धों को झेला। राजनैतिक असहिष्णुता से देश दुनिया में गुटबाजी और लड़ाइयाँ होती रही हैं। असहिष्णुता सामाजिक-मानवीय एकता और शान्ति में सदैव बाधक रही। इन सबका असर व्यक्ति और देश की आर्थिक स्थिति और खुशहाली पर पड़ता है। अनेकान्त की सार्वभौम महत्ता को रेखांकित करते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं - जिसके बिना संसार का, लोक का व्यवहार भली-भाँति पूरा नहीं किया जा सकता है, समस्त विश्व के गुरु उस अनेकान्तवाद को नमस्कार। (256)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy