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________________ Commecentenance 9000000000 नियुक्ति-गाथा-39-40 / (हरिभद्रीय वृत्तिः) ___पदार्थः प्रतिपाद्यते-तत्र औदारिकग्रहणाद् औदारिकशरीरग्रहणयोग्या वर्गणाः >> परिगृहीताः।ताश्चैवमवगन्तव्याः- इह वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति।तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतश्च। तत्र द्रव्यत एकप्रदेशिकानां यावदनन्तप्रदेशिकानाम्, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढानाम् यावदसंख्येयप्रदेशावगाढानाम्, कालत एकसमयस्थितीनां CM यावदसंख्येयसमयस्थितीनाम्, भावतस्तावत् परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य कृष्णानां यावत् शुक्लानाम् , व सुरभिगन्धानां दुरभिगन्धानां च। तिक्तरसानां यावन्मधुररसानाम्, मृदूनां यावद्रूक्षाणां , a गुरुलघूनामगुरुलघूनां च, एवमेता द्रव्यवर्गणाद्या वर्गणाश्चतुर्विधा भवन्ति। a (वृत्ति-हिन्दी-) (अब गाथा के) पदों का अर्थ बताया जा रहा है- औदारिक पद से यहां 'औदारिक शरीर द्वारा ग्रहण-योग्य वर्गणा' अर्थ ग्राह्य है। उन (के स्वरूप) को इस " ca प्रकार समझें- यहां वर्गणा के चार प्रकार हैं। जैसे- द्रव्य (की दृष्टि) से, क्षेत्र से, काल से - और भाव से। इनमें एकप्रदेशी से लेकर अनन्तप्रदेशी तक (द्रव्यों) की वर्गणाएं द्रव्य-दृष्टि से , & हैं। एक प्रदेश में अवगाढ़ (स्थित) से लेकर असंख्येय प्रदेशों पर अवगाढ़ द्रव्यों की वर्गणाएं, क्षेत्र-दृष्टि से हैं। एक समय से लेकर असंख्येय समय तक स्थिति वाले द्रव्यों की वर्गणाएं। काल की दृष्टि से है। और ‘परिस्थूल' न्याय को स्वीकार कर (मोटे रूप से निरूपण करें तो) ce कृष्ण वर्ण से लेकर शुक्ल वर्ण वाले, सुरभि गंध से लेकर दूषित गंध वाले, तिक्त रस से लेकर " ca मधुर रस वाले, मृदु स्पर्श से लेकर रूक्ष स्पर्श वाले, गुरुलघु व अगुरुलघु (गुणवाले) -इन सभी की द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की दृष्टि से चार-चार वर्गणाएं होती हैं। (हरिभद्रीय वृत्तिः) .. प्रकृतोपयोगः प्रदर्श्यते-तत्र परमाणूनामेका वर्गणा, एवं द्विप्रदेशिकानामप्येका, , & एवमेकैकपरमाणुवृद्धया संख्येयप्रदेशिकानां संख्येया वर्गणा, असंख्येयप्रदेशिकानांचासंख्येयाः, . ततोऽनन्तप्रदेशिकानाम् अनन्ताः खल्वग्रहणयोग्या विलंध्य ततश्च विशिष्टपरिणामयुक्ता " औदारिकशरीरग्रहणयोग्याः खल्वनन्ता एवेति। ता अपि चोल्लंघ्य प्रदेशवृद्धया . प्रवर्धमानास्ततस्तस्यैवाग्रहणयोग्या अनन्ता इति, ताश्च प्रभूतद्रव्यनिवृत्तत्वात् , सूक्ष्मपरिणामोपेतत्वाच्च औदारिकस्याग्रहणयोग्या इति।वैक्रियस्यापि चाल्पपरमाणुनिर्वृत्तत्वाद् / बादरपरिणामयुक्तत्वाच्चाग्रहणयोग्या एव ता इति।पुनः प्रदेशवृद्धया प्रवर्धमानाः खल्वनन्ता 333333333333333333333333333333333333333333333 - 808869088890880000000000000 205
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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