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________________ ce cR CR ca ca ca R श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 7mon nnnn (वृत्ति-हिन्दी-) तात्पर्य यह है- गुरुलघु पर्याय को प्राप्त गुरुलघु होता है और / & अगुरुलघु पर्याय को प्राप्त अगुरुलघु / जो तैजस द्रव्य के निकट होता है, वह गुरुलघु होता है है, और जो भाषा द्रव्य के निकट होता है, वह अगुरुलघु होता है। और वह अवधिज्ञान , प्रच्यवमान ही (प्रतिपाती, विनाशशील) होता हुआ, उस द्रव्य को उपलब्ध करते हुए ही, & सम्पन्न अर्थात् प्रच्यावित (नष्ट) हो जाता है। 'भी' पद से यह सूचित है कि जो प्रतिपाती & अवधिज्ञान है, उसी में यह स्थिति होती है, किन्तु अवधिज्ञान मात्र प्रतिपाती ही नहीं होता है a (वह अप्रतिपाती भी होता है)। 'च' पद का यहां 'एव' (ही) अर्थ है। वह 'अवधारण' व्यक्त , & करता है, इसलिए उसके प्रयोग से यह अर्थ व्यक्त होता है कि वही अवधिज्ञान उक्त प्रकार से प्रच्यवित होता है, शेष अवधि ज्ञान नहीं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ | 38 // विशेषार्थ अवधिज्ञान के अनेक भेद शास्त्रों में प्रतिपादित हैं, जिनमें अप्रतिपाती व प्रतिपाती-ये 222222222222222323233333333333333333333333333 भेद यहां प्रासंगिक हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है प्रतिपाती- प्रतिपात का अर्थ पतन होना, गिरना या समाप्त हो जाना है। जगमगाते दीपक ca के वायु के झोंके से एकाएक बुझ जाने के समान जो अवधिज्ञान सहसा लुप्त हो जाता है, उसे प्रतिपाती कहते हैं। यह अवधिज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न और लुप्त भी हो सकता है। . हीयमान और प्रतिपाती में अन्तर यह है कि हीयमान का तो पूर्वापेक्षया धीरे-धीरे ह्रास हो जाता है, . ca जबकि प्रतिपाती दीपक की तरह एक क्षण में नष्ट हो जाता है। अप्रतिपाती- जिस अवधिज्ञान का स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रेतिपाती कहते हैं। केवलज्ञान होने पर भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं जाता, अपितु वह केवलज्ञान में समाविष्ट हो : जाता है। केवलज्ञान के समक्ष उसकी सत्ता उसी तरह अकिंचित्कर है, जैसे कि सूर्य के समक्ष दीपक CR का प्रकाश। यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवें गुणस्थानवी जीवों के अन्तिम समय में होता है / और उसके बाद तेरहवें गुणस्थान प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। ca इस अप्रतिपाती अवधिज्ञान को परमावधिज्ञान भी कहते हैं। -8888888888888888888888888888888888888 - 202 202 (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)000RO900 (r)(r)(r)(r)(r)(r)
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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