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________________ 222222223332 22222233 | CORRECER cace ce नियुक्ति गाथा-32-35 00000000m | यह पद यह संकेत कर रहा है कि कभी एक महान् (विशाल) भाग और कहीं उसका & आंशिक भाग भी विषय (ज्ञेय) होता है। और असंख्यात काल यानी पल्योपम आदि काल , & जब अवधि का विषय हो तो उसी यानी असंख्यात काल के ज्ञाता अवधि के क्षेत्र की दृष्टि से , ज्ञेय होने वाले द्वीपों व समुद्रों की भजना कल्पनीय है। कभी उस समय जब किसी मनुष्य , को यहां असंख्यात द्वीप समुद्र को विषय करने वाला अवधि ज्ञान उत्पन्न होता है, तब उसके / ca वे असंख्यात ही द्वीप-समुद्र अवधि-विषय होते हैं। किन्तु कभी (संख्यात द्वीप-समुद्र ही है a अवधि के विषय हो पाते हैं, जैसे कभी) महान् संख्यात द्वीप-समुद्र (अवधि-विषय होते हैं), " तो कभी एक ही द्वीप या समुद्र, और कभी स्वयम्भूरमण पर्वत का एकदेश (आंशिक) , तिर्यक्-भाग ही अवधि का विषय हो पाता है। योजनों की दृष्टि से तो उक्त सभी विकल्पों में , (अर्थात् संख्यात द्वीप-समुद्रों को, एक द्वीप या समुद्र को या एकदेश भाग को जानने की , स्थिति में भी, योजनों को दृष्टि में रखें तो) क्षेत्र असंख्यात ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण : a हुआ॥ 35 // .. विशेषार्थ . प्रस्तुत चार गाथाओं में अवधि ज्ञान के विषय का, क्षेत्र व काल की अपेक्षा रख कर, विचार, किया गया है। अवधि ज्ञान के क्षेत्र व काल की दृष्टि से विषय-भेदों को समझने हेतु एक तालिका नीचे . प्रस्तुत की जा रही हैक्षेत्र-अपेक्षा काल-अपेक्षा a 1. एक अंगुल का असंख्यातवां भाग देखे। 1. एक आवलिका का असंख्यातवां भाग देखे। ca 2. अंगुल का संख्यातवां भाग देखे। 2. आवलिका का संख्यातवां भाग देखे। ca 3. एक अंगुल 3. आवलिका से कुछ न्यून। 4. पृथक्त्व अंगुल (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) 4. एक आवलिका।। 5. एक हस्त 5. एक मुहूर्त से कुछ न्यून। 6. एक कोस 6. एक दिवस से कुछ न्यून। 4 7. एक योजन 7. पृथक्त्व दिवस (दो से नौ दिवस तक) 8. पच्चीस योजन 8. एक पक्ष से कुछ न्यून। - (r)(r)R@RO98ck@@@98088000 195
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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