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________________ គ គ គ គ គ គ គ គ 1 2322222222222222222222 cace cecace crance नियुक्ति गाथा-13-15 अनुयोग-द्वार के माध्यम से यहां ज्ञान के सद्भाव का निरूपण किया गया है। उक्त तीनों वेदों में ज्ञान ca के सद्भाव का कथन पञ्चेन्द्रिय जीवों की तरह करणीय है। अर्थात् वहां पूर्वप्रतिपन्न तो नियम से होते 6 हैं, किन्तु प्रतिपद्यमानकों का सद्भाव भजनीय है, भाव या अभाव दोनों यथाप्रसङ्ग होते हैं। 'कषाय' मानसिक विकार हैं जो मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं। वस्तुतः ये आत्मीय परिणाम हैं जो मोहनीय कर्म के कारण होते हैं। ये आत्मपरिणाम या आत्मीय वैभाविक परिणमन जीव के सम्यकत्व, देशचारित्र, सकल चारित्र व यथाख्यात चारित्र का घात करने में सक्षम होते हैं। " कषाय मुख्यतः चार हैं-क्रोध, मान, माया व लोभ / इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं- अनन्तानुबन्धी, , अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, व संज्ज्वलन / अनन्तानुबन्धी कषाय जीव के सम्यक्त्व गुण का घात करता है। इस कषाय वालों में सम्यक्त्व के अभाव व अज्ञान के कारण, पूर्वप्रतिपन्न व ca प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव है। अप्रत्याख्यानावरण आदि तीन कषायों वाले जीवों में पञ्चेन्द्रियों की तरह आभिनिबोधिक ज्ञान का कथन करणीय है। (हरिभद्रीय वृत्तिः) व तथा लेश्यासु' चिन्त्यते। तत्र श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मणा इति लेश्याःca कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्यसंबन्धादात्मनः परिणामा इत्यर्थः। तत्रोपरितनीषु तिसृषु " व लेश्यासु पञ्चेन्द्रियवद्योजनीयम् इति।आद्यासुतु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, नत्वितर इति (7) / " तथा 'सम्यक्त्वद्वारम्'। सम्यग्दृष्टिः किं पूर्वप्रतिपन्नः किं वा प्रतिपद्यमानक इति। अत्र , व्यवहारनिश्चयाभ्यां विचार इति। तत्र व्यवहारनय आह- सम्यग्दृष्टिः पूर्वप्रतिपन्नः, न / प्रतिपद्यमानकः आभिनिबोधिकज्ञानलाभस्य, सम्यग्दर्शनमतिश्रुतानां युगपल्लाभात्, 4 आभिनिबोधिकप्रतिपत्त्यनवस्थाप्रसङ्गाच्च / निश्चयनयस्त्वाह- सम्यग्दृष्टिः पूर्वप्रतिपन्नः ल प्रतिपद्यमानश्च आभिनिबोधिकज्ञानलाभस्य, सम्यग्दर्शनसहायत्वात्, क्रियाकाल- 1 a निष्ठाकालयोरभेदात्, भेदे च क्रियाऽभाव-अविशेषात् पूर्ववद् वस्तुनोऽनुत्पत्तिप्रसङ्गात्, न चेत्यं / तत्प्रतिपत्त्यनवस्थेति (8) / (वृत्ति-हिन्दी-) (7) अब 'लेश्या' द्वारा का विचार किया जा रहा है। जो आत्मा को " a आठ प्रकार के कर्मों से श्लिष्ट (संयुक्त) करती हैं, वे लेश्या होती हैं, अर्थात् काय, वाणी व . मन -इन तीनों योगों में से किसी भी एक योग वाले व्यक्ति के आत्म-परिणाम 'लेश्या' हैं। , इन (छः) लेश्याओं में ऊपर की (प्रशस्त, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या व शुक्ललेश्या -इन) तीन " लेश्याओं में पञ्चेन्द्रिय की तरह कथन करना चाहिए। प्रथम तीन में तो 'पूर्वप्रतिपन्न' का (r)(r)(r)(r)ce@9808988999@cr(r)08 113
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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