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________________ -Ramacacea श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 99000000 व प्रतिपद्यमान -इन) दोनों का अभाव है (यहां सास्वादन काल की अल्पता के कारण ce उसकी विवक्षा नहीं की गई है- ऐसा मलधारी हेमचन्द्र का मत है)। शेष में पञ्चेन्द्रियों की . तरह वक्तव्यता समझनी चाहिए। (अर्थात् वहां पूर्वप्रतिपन्न हैं, प्रतिपद्यमान का सद्भाव , भजनीय है। जो पूर्व में प्राप्त कर वर्तमान में उनके उपयोग में या सम्बन्धित लब्धि में / 4 विद्यमान हैं, वे यहां 'प्रतिपन्न' रूप से ग्राह्य हैं, न कि वे जो प्रतिपन्न होकर उसे छोड़ चुके हैं। विशेषार्थ योग का अर्थ है- व्यापार, प्रवृत्ति। योग के तीन भेद हैं- काययोग, वचनयोग व मनोयोग। मन, वचन व शरीर के द्वारा होने वाले आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्द (हलचल) 'योग' यहां गृहीत है। शास्त्रीय शब्दावली में कहें तो बाह्य व आभ्यन्तर कारणों से उत्पन्न, आत्मा का गमनादिक सम्बन्धी & प्रदेश-परिस्पन्द 'काय योग' है। इसमें बाह्य कारण औदारिक आदि किसी न किसी प्रकार की शरीर& वर्गणा का अवलम्बन है और अन्तरंग कारण है- वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम / इसी प्रकार आत्मा का भाषाभिमुख प्रदेश-परिस्पन्द 'वचनयोग' है जिसमें बाह्य कारण , & पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से होने वाला वचन-वर्गणा का अवलम्बन है और अन्तरंग कारण वीर्यान्तराय कर्म व मतिज्ञानावरण व अक्षरश्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है। इसी 6 प्रकार, मनन-अभिमुख आत्म-प्रदेश परिस्पन्द ‘मनोयोग' है जिसमें अन्तरङ्ग कारण है- वीर्यान्तराय a कर्म क्षय या क्षयोपशम तथा नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम और बाह्य कारण है- मनोवर्गणा a का अवलम्बन / वस्तुतः इन तीनों में मुख्यता काययोग की है, क्योंकि काययोग की सहायता से होने 4 वाले भिन्न-भिन्न व्यापार को व्यवहार के लिए इन तीन योगों के रूप में निरूपित किया जाता है। 'योग' द्वार में मनोयोग आदि वाले जीवों में आभिनिबोधिक ज्ञान के सद्भाव का या वहां पूर्वप्रतिपन्न व प्रतिपद्यमान का सद्भाव बताया गया है। तीनों योग समुदित रूप में जिन जीवों में हैं, & उनमें आभिनिबोधिक ज्ञान का कथन पञ्चेन्द्रियों की तरह कथनीय है। मनोयोग-रहित वचनयोग वालों में विकलेन्द्रियों (द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय आदि) की तरह, तथा मात्र शरीर योग वालों में & एकेन्द्रियों की तरह कथन करना चाहिए (अर्थात् सैद्धान्तिक दृष्टि से मात्र शरीर-योग वालों में प्रतिपन्न / व प्रतिपद्यमान -इन दोनों का अभाव है)। 'वेद' के द्वारा इन्द्रियजन्य, संयोगजन्य सुख आदि का वेदन होता है। मोहनीय कर्म के , ca उदय, उदीरणा से होने वाला जीव-परिणाम का संमोह (चंचलपना), जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं " / रह पाता, वह (नो-कषाय) 'वेद' है। 'वेद' के तीन भेद हैं- पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद / 'वेद' (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 222333333333333332222222333333333333333333333 - 112
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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