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________________ cacace caceae श्रीआवश्यक नियुक्ति (व्याख्या-अनुवाद सहित) 0000000 33333333333333333333333333333333333333 (भिन्न-अभिन्न का स्पष्टीकरण-) भाषा रूप में गृहीत पुद्गलों का निर्गमन दो प्रकार से ce होता है- जिस प्रमाण में वे ग्रहण किये गये हों, उन सब पुद्गल-पिण्डों का उसी रूप में निर्गमन . & होता है, अर्थात् वक्ता भाषावर्गणा के पुद्गलों के पिण्ड को अखण्ड रूप में ही विसर्जित करता है। ऐसा, & अभिन्न शब्द-द्रव्य स्थूल होने से शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि वक्ता गृहीत पुद्गलों का भेद (विभाग) करके विसर्जित करता है तो वे पिण्ड (भिन्न) सूक्ष्म हो जाते हैं जो शीघ्र c. ध्वस्त नहीं होते, अपितु सम्पर्क में आने वाले अन्य (भाषा वर्गणा के) पुद्गलों को भी दासित a (भाषारूप में परिणत) करते हुए, (वीचीतरंगन्याय से) अनन्तगुण वृद्धि से बढ़ते-बढ़ते लोकान्त तक & पहुंच जाते हैं। ___वृत्तिकार ने 'समुद्घात' का प्रसंगवश संकेत किया है। समुद्घात-सम्बन्धी विशेष विवरण " c& प्रज्ञापना (36 पद), स्थानांग (4/4/645, 8/114), भगवती सूत्र (6/6, 2/2) तथा औपपातिक (सूत्र 141-150) आदि से ज्ञातव्य हैं। तथापि प्रकृत विषय को स्पष्ट करने हेतु अपेक्षित निरूपण यहां दिया जा रहा है समुद्घात का अर्थ है- वेदना आदि कारणों से आत्म-प्रदेशों का बहिःनिस्सरण (बाहर , निकलना)। इसके सात भेद हैं- वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, वैक्रिय , समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात, और केवली-समुद्घात। प्रस्तुत प्रकरण में समुद्घात से तात्पर्य है- केवली समुद्घात / औपपातिक सूत्र एवं स्थानांग के अनुसार केवली समुद्घात का स्वरूप इस प्रकार है समुद्घात के पहले समय में केवली के आत्म-प्रदेश ऊपर और नीचे की ओर लोकान्त तक शरीर-प्रमाण चौड़े आकार में फैलते हैं। उनका आकार दण्ड के समान होता है, अतः इसे दण्डसमुद्घात कहा जाता है। दूसरे समय में वे ही आत्म-प्रदेश पूर्व-पश्चिम दिशा में चौड़े होकर लोकान्त तक फैल कर कपाट के आकार के हो जाते हैं, उसे कपाटसमुद्घात कहते हैं। तीसरे समय में वे ही आत्म-प्रदेश c& दक्षिण-उत्तर दिशा में लोक के अन्त तक फैल जाते हैं, इसे मन्थान समुद्घात कहते हैं। दिगम्बर शास्त्रों में इसे प्रतर समुद्घात कहते हैं। चौथे समय में वे आत्म-प्रदेश बीच के भागों सहित सारे लोक में फैल जाते है, इसे लोक-पूरण समुद्घात कहते हैं। इस अवस्था में केवली के आत्म-प्रदेश और लोकाकाश के प्रदेश सम-प्रदेश रूप से अवस्थित होते हैं। इस प्रकार इन चार समयों में केवली के प्रदेश उत्तरोत्तर फैलते जाते हैं। - 100 B BCR@ @@@ @ @ @ @ @ @c&000
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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