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________________ -RRRRRRRR. គ ព គ គ គ គ គ គ 1 - &&& && नियुक्ति गाथा-11 गमन ही करता है (अतः समुद्घातवत् गति मानें तो वह तीन समयों में ही लोक को पूरित ce कर देगा, जो आगम-सम्मत नहीं होगा)। अतः अब अधिक कहना अपेक्षित नहीं। यहां जो , & कहा गया है, वह मात्र ‘गमनिका' (सामान्यतः समझाने की दृष्टि से कथन) है। और, जो यह आपने पूछा था कि लोक के कितने भाग में भाषा द्रव्य का कितना भाग स्पृष्ट होता है, तो हमारा उत्तर है- (लोकस्य)। क्षेत्रगणित की दृष्टि से (चरमान्ते) लोक , के असंख्येय भाग में, (भाषायाः चरमान्तः) समग्र लोक में व्याप्त होने वाली भाषा का C. असंख्येय भाग (स्पृष्ट होता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||11 || विशेषार्थ प्रस्तुत प्रकरण में भाषा की सूक्ष्मता और उसकी लोक-व्यापिता का स्पष्टीकरण किया गया है & है। भाषा वर्गणा के पुद्गल सूक्ष्म और चतुःस्पर्शी होते हैं, इसलिए सामान्य जनों यानी छद्मस्थों के लिए दृश्य नहीं होते। किन्तु केवली-सर्वज्ञ ध्वनि-तरंगों को, चाहे वे कहीं भी हों, साक्षात् आत्मा से (न कि इन्द्रियों से) जानता है। छद्मस्थ उन्हें कान से सुनकर जानता है। वे सूक्ष्म शब्द किस प्रकार श्रवणयोग्य बनते हैं? इसका समाधान इस प्रकार है- वक्ता के मुख से निकले शब्दों का विस्फोट होता है, उनमें अनन्तप्रदेशी (भाषा वर्गणा के) स्कन्ध मिलकर उन्हें अष्टस्पर्शी बना देते हैं। विशेषावश्यक भाष्य व टीकाकार (गाथा-628-629) के अनुसार भाषा के अन्तरालवर्ती द्रव्य गुरुलघु व अगुरुलघु , Ga -दोनों होते हैं। लोक में त्रस जीवों का एक नियत क्षेत्र-प्रसनाड़ी-होता है, उसमें स्थित व्यक्ति छहों , दिशाओं से आने वाले शब्दों को सुन सकता है। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य -भगवती सूत्र (5/4 उद्दे.) . ce. आदि। भाषा के वक्ता (भाषक) कौन-कौन से जीव हो सकते हैं- इस सम्बन्ध में भी शास्त्रों & (पण्णवणा, 11 पद आदि) में सामग्री प्राप्त होती है। सिद्ध, शैलेशी अवस्था प्राप्त केवली, एकेन्द्रिय, 4 अपर्याप्तक अनेकेन्द्रिय -ये अभाषक माने गए हैं। पर्याप्तक अनेकेन्द्रिय जीवों की भाषा दो प्रकार की होती है- अक्षरात्मक व अनक्षरात्मक (स्थानांग- 2/3/212) / वर्णों की नियत क्रम से होने वाली ल ध्वन्यात्मक भाषा 'अक्षरात्मक' होती है। यही भाषा श्रवण-ग्राह्य होकर व्यवहार-जगत् में परस्पर & मनोभावों के सम्प्रेषण में सहायक होती है। प्रस्तुत प्रकरण में यही भाषा विशेषतः ग्राह्य है। इस भाषा " a के वक्ताओं में कुछ वक्ता मन्दप्रयत्न वाले होते हैं तो कुछ तीव्र प्रयत्न वाले। यदि वक्ता मन्द प्रयत्न से . बोलता है तो उसके द्वारा निसर्जित शब्द द्रव्य 'अभिन्न' होते हैं जो आगे जाकर 'भेद' को प्राप्त होते हैं। . खण्ड, प्रतर, चूर्णिका, अनुतटिका, उत्करिका -इन रूपों में ये पांच प्रकार के भेद माने गये हैं , | (जिनका विशेष विवरण पन्नवणा (11 पद) से ज्ञातव्य है। - (r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r)(r) 99 222833333333333333333333333333333333333333333 &&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&& य
SR No.004277
Book TitleAvashyak Niryukti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumanmuni, Damodar Shastri
PublisherSohanlal Acharya Jain Granth Prakashan
Publication Year2010
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size10 MB
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